ग्वालियर के मशहूर सराफ़ा बाज़ार की चकाचौंध के बीच एक ऐसा इतिहास दबा हुआ है, जिसका ताल्लुक़ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से रहा है। इसका ताल्लुक़ उस शख़्स से भी है, जिसने ना सिर्फ़ अपने जीवन का शुरूआती दौर इस बाज़ार में बिताया, बल्कि जिसने सन 1857 की क्रान्ति में बिना हथियार उठाए अंग्रेज़ों से जंग लड़ी। और इसी वजह से उन्हें फांसी की सज़ा भी दी गई थी। उस शख़्स का नाम था अमरचंद बांठिया।
दुर्भाग्यवश, बांठिया के बारे में ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। चंद ऐतिहासिक सूत्रों से हमें ये पता चलता है, कि उनका जन्म, बीकानेर (राजस्थान) के एक मारवाड़ी व्यवसायिक परिवार में, सन 1793 में हुआ था। पारिवारिक व्यवसाय के फैलाव के कारण, ग्वालियर में इनका आना-जाना चलता रहता था। दिलचस्प बात ये है, कि इनके पूर्वज पहले ओसवाल कहलाते थे, जो अपने कुशल व्यवसाय से ज़्यादा, ग़रीबों में धन बांटने के लिए जाने जाते थे। इसी वजह से उनका नाम ‘बांठिया’ (खूब बांटने वाला) पड़ गया। मगर अमरचंद के जन्म के, लगभग एक दशक बाद, धंधे में घाटे के कारण इस परिवार को बीकानेर छोड़कर ग्वालियर की और रुख़ करना पड़ा था, जहां वो सराफ़ा बाज़ार में जाकर बस गए थे।
अट्ठारहवीं शताब्दी के मध्य तक आते-आते, ग्वालियर में बांठिया और उनके परिवार का व्यवसाय धीरे-धीरे रफ़्तार पकड़ रहा था। उसी दौरान अंग्रेज़ हुकूमत उत्तर और मध्य भारत में अपने राज का विस्तार कर रही थी। ग्वालियर (वर्तमान मध्य प्रदेश में) सिंधिया शासकों के राज के दौरान एक समृद्ध नगर के तौर पर विकसित भी हो रहा था।
चालीस वर्षीय बांठिया अपने आर्थिक प्रबंधन और व्यवसाय से, अपनी अच्छी पहचान बना रहे थे। उनकी काबिलीयत के क़िस्से दसवें सिंधिया शासक महाराज जयाजीराव सिंधिया के प्रभावशाली मंत्री दीवान राव के कानों तक जा पहुंचे। बांठिया के काम से प्रभावित होकर, उन्हें सिंधिया-राजकोष का अध्यक्ष बना दिया गया। ‘गंगाजली’ नाम के इस ख़ज़ाने की विशेषता ये थी, कि ये धन-दौलत और हीरे-जवाहरात से इतना भरा हुआ था, कि सिंधिया शासकों को ‘मोती वाले राजा’ कहा जाने लगा था। गंगाजली के प्रबंधन में बांठिया की काबिलीयत से सिंधिया और राव इतने प्रभावित हुए, कि उन्होने बांठिया को ‘नगरसेठ’ की उपाधि से नवाज़ा।
एक तरफ़ बांठिया का प्रभाव ग्वालियर में बढ़ता जा रहा था और दूसरी तरफ़ अंग्रेज़ों के दमन का चक्र अब पूरे भारत में फैलने लगा था। इसी ज़ुल्म की वजह से पूरे देश में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा बढ़ता जा रहा था। जब मई, सन 1857 में,मेरठ से क्रान्ति का बिगुल बजा, तो उसी समय ग्वालियर के पड़ोस झाँसी में बग़ावत की भावना अंगड़ाई ले रही थी, जब वहाँ के महाराज गंगाधर राव नेवालकर के दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी की मान्यता देने के बजाए, अंग्रेज़ों ने झांसी पर क़ब्ज़ा कर लिया और रानी लक्ष्मीबाई को नज़रबंद कर दिया।
धीरे-धीरे क्रान्ति अपने चरम पर पहुँच रही थी। सिंधिया के पूर्वजों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ कई लड़ाईयां लड़ी थीं, लेकिन इस बार उन्होंने राव के सुझाव पर निष्पक्ष रहना ही ठीक समझा। लेकिन जब सन 1858 में रानी लक्ष्मीबाई ने ताँतिया टोपे, बांदा के नवाब और राव साहेब के साथ अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जंग का ऐलान किया और मोर्चा खोलकर झाँसी और फिर कालपी के बाद ग्वालियर तक पहुंच गईं, तब सिंधिया उनका साथ देने के बजाय अंग्रेज़ों से मिल गए और आगरा में शरण ले ली।
ग्वालियर पहुंचकर रानी और उनके साथियों और सिपाहियों ने बांठिया और सिंधिया के कुछ सैनिकों से मुलाक़ात की, जिन्हें विद्रोह की पूरी जानकारी थी और वो इसमें शामिल होने के लिए बेचैन थे। उन सैनिकों ने सिंधिया का साथ देने से इंकार कर दिया और अपने पूर्वजों की परम्परा को क़ायम रखते हुए, बांठिया ने आर्थिक सहायता के तौर पर ग्वालियर क़िले में दबे गंगाजली ख़ज़ाने की चाबी राव साहेब को सौंप दी। दरअसल उस दौरान समस्या ये थी, कि उनके सैनिकों को कई महीनों से वेतन नहीं मिला था, और राशन की भी कमी होती जा रही थी। बांठिया ने अपने महाराजा से किया वचन तोड़ा और गंगाजली ख़ज़ाने के तालों को खुलवा दिया था। राव साहब के हस्तक्षेप से सभी सैनिकों को पांच-पांच महीने तक का वेतन और साथ में राशन भी दिया गया। लेकिन बात यहां ख़त्म नहीं हुई ।अपनी व्यवसायिक काबिलीयत से बांठिया ने जो सम्पत्ति जुटाई थी, उन्होंने जंग में उसका भी दिल खोलकर इस्तेमाल किया। बावजूद इसके रानी की सेना कड़े मुक़ाबले के बाद युद्ध के मैदान में पराजित हो रही थी…
आख़िर 16 जून, सन 1858 को ग्वालियर के निकट मुरार में निर्णायक युद्ध हुआ, जहां एक तरफ़ रानी, तांत्या टोपे और उनकी सेना और दूसरी तरफ़ ह्यूरोज़ और उसकी अंग्रेजी पलटन आमने-सामने थीं। दिलचस्प बात ये थी, कि अंग्रेज़ों की सेना में जयाजी राव और दीवान राव भी शामिल थे। इस भीषण युद्ध के बाद, रानी की सेना ढ़ेर हो गई और रानी ने युद्ध में वीरगति प्राप्त की । तांत्या टोपे कई वर्षों तक भूमिगत रहे, लेकिन बाद में उनके एक साथी ने उनको छल से पकड़वा दिया। बाद में उनको फांसी दे दी गई।
जब अंग्रेज़ों का ग्वालियर पर कब्ज़ा हो गया, तब जयाजी राव और राव को अपनी प्रजा से ज़्यादा अपने ख़ज़ाने की चिंताहुई। ख़ज़ाना वापस तो मिल गया, मगर काफ़ी हद तक ख़ाली। जब ये पता चला, कि ख़ज़ाना ख़ाली करने के ज़िम्मेवार और कोई नहीं बल्कि बांठिया ही थे, तब अंग्रेज़ों ने उनपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया और 22 जून, सन 1858 को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया । बांठिया को उसी सराफ़ा बाज़ार में फांसी दी गई ,जहां उन्होंने अपना अधिकाँश जीवन बिताया था और अपने व्यवसाय का विस्तार भी किया था। उसी जगह पर बांठिया की प्रतिमा है, जहां हर वर्ष 22 जून को बलिदान दिवस मनाया जाता है।
कई स्थानीय इतिहासकारों का मानना है, कि बांठिया राजस्थान के, मारवाड़ क्षेत्र के पहले ऐसे शहीद थे, जिन्होंने अंग्रेज़ों से लोहा लिया था। माना जाता है, कि इनके वंशज आज कानपुर(उत्तर प्रदेश) में बसे हुए हैं। बांठिया उन चंद देशभक्तों में गिने जाते हैं, जिन्होंने हथियार नहीं उठाए, बल्कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ दौलत को हथियार की तरह इस्तेमाल किया। इस महान स्वतंत्रता सेनानी की शहादत की कहानियां, कविताओं और लोकगीतों में आज भी जीवित हैं।
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