तमिलनाडु में कई शानदार मंदिर हैं, जो इस क्षेत्र में शासन करने वाले महान राजवंश के गौरवपूर्ण काल के साक्षी हैं। चोल राजाओं ने भारत में कुछ भव्य मंदिर बनाये थे, जिनमें सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध मंदिर हैं तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर और गंगैकोंड चोलपुरम मंदिर। लेकिन एक ऐसा भी शानदार मंदिर है, जिसे चोल शासकों ने बनवाया था। ये मंदिर है ऐरावतेश्वर मंदिर, जो तमिलनाडु के तंजावुर ज़िले में कुंभकोणम से कुछ कि.मी.के फ़ासले पर छोटे से शहर दरासुरम में स्थित है। माना जाता है, कि भगवान इंद्र के सफ़ेद हाथी ऐरावत को श्राप मिला था, लेकिन मंदिर के कुंड में स्नान करने से वह श्राप मुक्त हो गया था और इसलिए इस मंदिर का नाम ऐरावतेश्वर मंदिर पड़ा।
मौजूदा समय का कुंभकोणम तालुक, कई मंदिरों और मठों के लिये जाना जाता है, और ये स्थान इतिहास से भरपूर हैं। माना जाता है, कि तीसरी ई.पू. सदी में संगम युग के दौरान, यहां लोग आकर बसे थे। चोल राजाओं के शासनकाल में ये क्षेत्र प्रसिद्ध हुआ। चोल राजवंश ने 9वीं से लेकर 12वीं सदी तक शासन किया था। कुंभकोणम से कुछ कि.मी. दूर पज्हयराई शहर है, जो चोल राजवंश की राजधानी हुआ करती थी। चोल राजवंश के पतन के बाद यहां 1290 में पंड्या राजवंश का और फिर विजयनगर साम्राज्य का शासन हुआ। 16वीं से लेकर 18वीं सदी तक ये क्षेत्र नायक राजवंश के अधीन रहा और फिर उनके बाद यहां मराठों का शासन हो गया। आख़िरकार 1799 में ये ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन हो गया।
मध्यकालीन चोल राजवंश भारत के सबसे शक्तिशाली राजवंशो में एक था। उनका साम्राज्य उत्तर में गंगा नदी से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक फैला हुआ था और मालदीव, म्यांमार तथा इंडोनेशिया तक उनका प्रभाव था।
कुशल शासक होने के अलावा चोल राजा कला और वास्तुकला के भी बड़े संरक्षक थे। चोल-शासनकाल में मंदिरों के निर्माण का काम शुरु हुआ, जो चोल राजा राजाराज प्रथम (985-1014) और राजेंद्र चोल प्रथम (1014-1044) के शासनकाल में अपने चरम पर पहुंच गया था। इन दोनों शासकों ने पूर्वी चालुक्य राजवंश के साथ वैवाहिक गठबंधन किया था। चालुक्य राजवंश 7वीं से लेकर 12वीं सदी तक आंध्र प्रदेश में वेंगी क्षेत्र में शासन करते थे। मध्ययुगीन चोल राजवंश का अंतिम शासक अधिराजेंद्र चोल था, जिसके शासनकाल की अवधि बहुत छोटी रही। 1070 ईस्वी में उसका निधन हुआ।
अधिराजेंद्र के निधन के बाद कुलोत्तुंग प्रथम के राज्याभिषेक के साथ ही बाद के चोल राजवंश की शुरुआत हुई। कुलोत्तुंग अम्मांगा देवी (राजेंद्र चोल प्रथम की बेटी) और पूर्वी चालुक्य राजा राजाराज नरेंद्र का पुत्र था। चोल राजवंश कुलोत्तुंग द्वितीय के पुत्र राजाराज द्वितीय के शासनकाल के दौरान कमज़ोर होने लगा था। राजाराज द्वितीय ने 1146 से लेकर 1173 ईस्वी तक शासन किया था।
राजाराज द्वितीय के शासनकाल में चोल के जागीरदारों को महत्व मिलने लगा था और वे स्वायत्त भी हो गए थे। बहरहाल, कमज़ोर साम्राज्य होने के बावजूद राजाराज द्वितीय के शासनकाल के दौरान चोल शासकों का उनके क्षेत्र के अधिकतर हिस्सों पर नियंत्रण था। राजाराज द्वितीय ने 26 साल तक शासन किया था। उनके शासनकाल में शांति थी और साहित्यिक गतिविधियां ख़ूब होती थीं। कला के संरक्षक राजाराज द्वितीय ने तमिल साहित्य को शाही संरक्षण दिया था, जो चोल-शासनकाल के दौरान भी ख़ूब फलाफूला। बाद के चोल-शासन के दौरान उत्ताकुत्तर, सेककिज़ार और कंबर जैसे महान कवि हुए।
राजाराज द्वितीय के शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में ऐरावतेश्वर मंदिर का निर्माण एक महत्वपूर्ण घटना थी। ऐरावतेश्वर चोल-शासनकाल के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है।
चोल राजा विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय और राजाराज द्वितीय के दरबार में 12वीं सदी के कविउत्ताकुत्तर ने राजाराज द्वितीय द्वारा मंदिर निर्माण का उल्लेख किया है। इतिहासकार एस.आर. बालसुब्रमण्यम के अनुसार, “विक्रम चोल और कुलोत्तुंग द्वितीय ने जहां मौजूदा मंदिरों की सजावट और इनके विस्तार पर ही ध्यान दिया था, वहीं इनके शासनकाल में नये मंदिर कम ही बनते थे, लेकिन राजाराज द्वितीय के शासनकाल में बहुत से मंदिरों का निर्माण हुआ।”
12वीं सदी का ऐरावतेश्वर मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। एक किवदंति के अनुसार इस मंदिर का नाम ऐरावत के नाम पर पड़ा, जो भगवान इंद्र का सफेद हाथी था। दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण हाथी का रंग बदल गया था, लेकिन मंदिर के कुंड में डुबकी लगाने के बाद हाथी का रंग फिर सफेद हो गया।
चोल द्वारा बनवाये गये मंदिरों में ऐरावतेश्वर मंदिर उन चार मंदिरों में से एक है, जिनके शिखर पर विमान-रुपी आकृति है। इस तरह के अन्य मंदिर हैं, तंजावुर का ब्रह्देश्वर मंदिर, गंगैकोंडा चोलेश्वर मंदिर और त्रिभुवनम का कामपेश्वर मंदिर। हालांकि मंदिर गोपुरम अथवा मुख्य प्रवेश द्वार अब नहीं है, लेकिन छोटा द्वार अभी भी मौजूद है। मंदिर में एक गर्भगृह, एक अर्ध मंडप और महा मंडप है।
गर्भगृह में शिवलिंग को राजाराजेश्वरम कहा जाता है। माना जाता है, कि राजाराज द्वितीय ने गाय चरवाहो को ख़ुश करने के लिये मंदिर बनवाया था, जिन्होंने तंजावुर मंदिर के विमान के लिये एक बड़ी शिला भेंट की थी और वे इसी तरह का मंदिर अपने गांव में चाहते थे।
मुख्य मंदिर के पास ही एक सुसज्जित मंदिर है, जो पार्वती को समर्पित है। इसे देवनायकी अम्मान मंदिर कहा जाता है। इसका निर्माण राजा कुलोत्तुंग तृतीय के शासनकाल में हुआ था।
हालांकि ये मंदिर बृहदेश्वर और गंगैकोंडा चोलेश्वर मंदिर की तुलना में छोटा है, लेकिन ऐरावतेश्वर मंदिर अपनी वास्तुकला और सजावट की वजह से विशिष्ट है। चोल शासक भगवान शिव के उपासक थे। पत्थर को तराश कर बनाये गये इस मंदिर में पुराण और शिव से संबंधित कथाओं का वर्णन है। इस मंदिर की मूर्तियां पॉलिश की हुई काले बसाल्ट की बनी हुई हैं।
इस मंदिर में आठ भुजाओं और तीन मुख वाली अर्धनारेश्वर (शिव का आधा पुरुष और आधा नारी की रुप), नृत्य करती तीन मुख वाली मार्तण्ड-भैरव ( शिव का एक रुप), शरभ (विष्णु के नरसिम्हा अवतार को शांत करने के लिये शिव द्वारा धारण किया गया अवतार) और लिंगोदभव (ब्रह्मा और विष्णु के बीच विवाद को समाप्त करने के लिये एक बड़े लिंग से शिव का अवतरित होना) की मूर्तियां हैं। चोल चूंकि कला के बड़े संरक्षक थे, इसलिये मंदिर में संगीत और नृत्य के दृश्यों की छवियां देखकर कोई आश्चर्य नहीं होता।
मंदिर के विमान और मंडप के ऊपर पैनलों पर शिव-संतो की 108 छवियां बनी हुई हैं, जो 63 नयनारों (शिव के भक्त संत) के जीवन का वर्णन करती हैं।
8वीं सदी में भक्ति आंदोलन का उदय हुआ। ये मोक्ष प्राप्त करने के लिये पूजा-अर्चना के तौर-तरीक़ों में धार्मिक सुधारों का आंदोलन था। ये आंदोलन दक्षिण भारत में नयनारों और अलवरों (विष्णु के उपासक) ने शुरु किया था जो जगह-जगह जाकर अपने भगवान की प्रशंसा में तमिल भाषा में भजन गाते थे। समय के साथ मंदिर बनते गये और वे तीर्थ स्थल बन गये। संतो द्वारा गाये जाने वाले तमिल भजन इन मंदिरों के रिवाजों का अभिन्न अंग बन गये।
63 नयनार संतों का ये समूह शिव का उपासक था, जो तीसरी से 8वीं सदी के बीच होते थे। ऐरावतेश्वर मंदिर में 63 नयनार संतों का चित्रण पेरिया पुराण से है, जो 12वीं सदी का ग्रंथ है, जिसमें नयनारों के जीवन का वर्णन है। इसका संकलन राजाराज-द्वितीय के पिता कुलोत्तुंग-द्वितीय के समकालीन सेककीज़र ने किया था। शिव के संतों के अभिलेखों के अलावा मंदिर में राजा कुलोत्तुंग-तृतीय द्वारा मंदिर की मरम्मत कराने संबंधित अभिलेख भी है। मुख्य प्रवेश द्वार के बाहर की दीवार में अंकित अभिलेख में देवी-देवताओं के नाम लिखे हुए हैं, जिनकी मूर्तियां आलों में लगी हुई थीं। ज़्यादातर मूर्तियां अब नहीं हैं और सिर्फ़ अभिलेख ही बचे रह गये हैं।
राजाधिराजा-द्वितीय का उत्तराधिकरी, राजाराज-द्वितीय बना। उसी के दौर में चोल साम्राज्य के पतन की शुरुआत हो गई थी।
आज बृहदेश्वर, गंगैकोंड चोलपुरम और ऐरावतेश्वर मंदिर यूनेस्को की वैश्विक धरोहर की सूची में हैं। इन्हें ‘ग्रेट लिविंग चोला टेम्पल्स’ यानि महान चोल मंदिरों के नाम से जाना जाता है।
यहां कैसे पहुंचे:
ऐरावतेश्वर मंदिर दरासुरम शहर में स्थित है। ये शहर तंजावुर से क़रीब 36 कि.मी. दूर है। आप यहां टैक्सी, बस या फिर रेल से जा सकते हैं। यहां से क़रीबी हवाई अड्डा त्रिची में है जो क़रीब 90 कि.मी. के फ़ासले पर है। आप बस या फिर रेल से भी कुंभकोणम जा सकते हैं, जो पांच कि.मी. दूर है।
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