उत्तर प्रदेश के बरेली ज़िले में एक प्राचीन मगर अनजान शहर है.. अहिच्छत्र। ये शहर एक नहीं, कई कारणों से भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। इस शहर का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। बताया जाता है कि ये शहर 1430 ई.पू.का है और यहां एक क़िला, मंदिर और मिट्टी के बर्तन मिले हैं। अहिच्छत्र को 16 महाजनपद काल का एक महत्वपूर्ण नगर माना जाता है जो आगे चलकर बौद्ध और जैन धर्मों के लिये एक महत्वपूर्ण तीर्थ-स्थल बन गया था।
आज का बरेली क्षेत्र पांचाल साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था जो ई.पू छठी शताब्दी के दौरान 16 महाजनपदों में से एक था। ग्रंथों के अनुसार पांचाल साम्राज्य प्रमुख रुप से दो हिस्सों में बंटा हुआ था-उत्तर पांचाल और दक्षिण पांचाल। कहा जाता है कि पांचाल के राजा द्रुपद और द्रोण के बीच संधि के बाद साम्राज्य का विभाजन हुआ था। विभाजन के बाद अहिच्छत्र उत्तर पांचाल और काम्पिल्य दक्षिण पांचाल की राजधानी बन गई। काम्पिल्य को आज काम्पिल कहते हैं जो उत्तर प्रदेश के फ़र्रुख़ाबाद ज़िले में है। अहिच्छत्र मौजूदा समय के रामनगर गांव के पास स्थित है।
दिलचस्प बात ये है कि अहिच्छत्र नाम का इतिहास ख़ुद-ब-ख़ुद शहर के बारे में कई बाते बताता है। एक स्थानीय लोक-कथा के अनुसार अहीर वंश के राजा आदि राजा, एक बार, जब सो रहे थे, तब एक नाग ने उनकी रक्षा के लिये अपने फन से उनके ऊपर एक छतरी बना ली थी और इसीलिये इसका नाम अहि-छत्र पड़ गया। लेकिन दूसरी तरफ़ यूनान के भू-वैज्ञानिक टोलमी ने भारत के बारे में लिखते समय इस स्थान को आदिसद्र कहा है। वैसे कभी-कभी इसे अहिक्षेत्र भी लिखा जाता है।
भारतीय पुरातत्व के पितामह एलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने 1860 के आरंभ में इस क्षेत्र में खुदाई की थी जिसे उस समय की बड़ी उपलब्धि माना जाता है। अहिच्छत्र पर अपनी रिपोर्ट में वह कहते हैं कि ऐसा माना जाता है कि भागवान बुद्ध ने इस शहर में आकर सांपों के तालाब के पास सात दिन तक विधि के बारे में ज्ञान दिया था। शायद इसीलिये बौद्धों ने बुद्ध के सम्मान में लोक-कथा में बदलाव किया होगा। इस तालाब की खोज चीन के यात्री हेव्न त्सांग ने थी जब वह 7वीं शताब्दी में इस शहर में आए थे। बाद में उसी जगह पर सम्राट अशोक का स्तूप बनाया गया। कनिंघम के अनुसार स्तूप को अहि-छत्र या सर्प-छतरी कहा जाता होगा।
जैनियों के एक रिकॉर्ड के अनुसार नाम के उद्भव का संबंध 23वें जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ से है। रिकॉर्ड में कहा गया है कि शहर में बाढ़ के समय सर्प-राजा धरानिंद्र ने पार्श्वनाथ को बचाने के लिये उनके चारों तरफ कुंडली मार ली थी और उनके ऊपर फन से छतरी बना दी थी। तभी से शहर का नाम अहिच्छत्र पड़ गया।
ग्रंथों में दर्ज तथ्यों के अलावा इलाहबाद के पास मिली एक गुफा के शिला-लेख में अहिच्छत्र का उल्लेख है। कहा जाता है कि गुफा में मिला ये शिला-लेख सबसे प्राचीन पुरालेख रिकॉर्ड है। इलाहबाद में कोसाम के पास पभास गुफा में अहिच्छत्र के राजा अशाधसेना के दो शिला-लेख हैं।इनमें से एक में आदिछत्र का उल्लेख है।
अहिच्छत्र आस्था का केंद्र था। शहर के बारे में हेव्न त्सांग के विवरण को पढ़ने से साफ़ समझ में आता है कि यहां किसी समय बौद्ध और हिंदू धर्म एक साथ फलफूल रहे थे। चीनी यात्री हेव्न त्सांग के अनुसार यहां 12 मठ, एक हज़ार बौद्ध भिक्षु, ब्राह्मणों के नौ मंदिर और क़रीब तीन सौ शिव उपासक थे। ये शिव भक्त अपने शरीर पर राख मलते थे। लेकिन कन्निंघम का कहना है कि उन्हें यहां क़रीब 24 मंदिरों के अवशेष मिले जो, जिसका कारण संभवत बौद्ध धर्म का पतन रहा हो।
यहां एक बात समझना बेहद ज़रुरी है कि अहिच्छत्र जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया था और आज भी जैन समुदाय के लिये ये एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है। माना जाता है कि यहीं पार्श्वनाथ को केवलज्ञान प्राप्त हुआ था।
क़िले का ज़िक्र किये बिना शहर की कहानी अधूरी रह जाएगी। आधुनिक युग में यहां आने वाला पहला व्यक्ति सर्वेक्षक कैप्टन हॉजसन था। उसने इस जगह को एक बड़े क़िले पांडु का खंडहर बताया था जो मीलों तक फैला हुआ था और जिसमें 34 गढ़ भी थे। कुछ जगह इस क़िले को आदिकोट भी कहा जाता है।
कन्निंघम बताते हैं कि क़िले की सारे मीनार प्राचीन नहीं हैं। 18वीं शताब्दी में रोहिल्ला के सुबेदार अली मोहम्मद ख़ान ने दिल्ली सल्तनत से ख़तरे से बचने के लिये क़िले की मरम्मत करवाने की कोशिश की थी। कन्निंघम की अहिच्छत्र पर रिपोर्ट में टीलों का ज़िक्र भी है जो उनकी खोज में क़िले के आसपास पाये गये थे।
अहिच्छत्र में बर्तन बनाने की परंपरा का भी भारतीय इतिहास में विशेष योगदान है। शायद ये बात ज़्यादा लोगों को न मालूम हो कि ये पहला स्थान है जहां 1940-44 में खुदाई के दौरान चित्रकारी वाले धुंधले रंग के बर्तन मिले थे। ये धुंधले बर्तन उत्तर भारत में लौह युग की विशेषता माने जाते हैं। माना जाता है कि इनका इस्तेमाल सतलज, घग्गर और ऊपरी गंगा-यमुना घाटियों में आकर बसने वाले लोग करते थे। बाद में चालीस और साठ के दशक में खुदाई के दौरान यहां बर्तन बनाने की संस्कृति का भी पता। इसके अलावा मित्र और प्रतिहार वंश के सिक्के भी खुदाई में मिले। गुप्त काल में ये शहर टेराकोटा का केंद्र हुआ करता था। इस बात की गवाह कई मूर्तियां हैं जो आज भी मौजूद हैं। दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में गंगा-प्रतिमा टेराकोटा कला का एक शानदार नमूना है। इसके अलावा यहां से शिव-पार्वती और मैत्र बुद्ध की छोटी-छोटी मूर्तियां भी मिली हैं।
ये शहर अब यूनेस्को वर्ल्ड हैरिटेज की संभावित सूची में है और इसे भारत में सिल्क रुट का हिस्सा माना गया है। ये शहर उत्तर भारत में उत्तरपथ सिल्क रुट में आता है जो तक्षशिला, मथुरा और पाटलीपुत्र जैसे प्राचीन भारत के शहरों को जोड़ता था। इसलिये अगली बार जब आप बरेली जाएं तो इस ऐतिहासिक घरोहर अहिच्छत्र को देखना न भूलें।
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