हालंकि आज बंगुलुरु शहर ‘गार्डन सिटी’ के नाम से जाना जाता है लेकिन इस ख़िताब का असली हक़दार आगरा है जिसे मुग़लों ने बसाया था।
बाग़ बनवाने की “ मुग़ल चारबाग़ शैली ” दरअसल फ़ारस ( ईरान) में विकसित हुई थी। इस शैली में बाग़ चौकोर होता था जिसे रास्तों या फिर नहरों से चार हिस्सों में बांटा जाता था। इस शैली का विचार क़ुरान में जन्नत की पेश की गई तस्वीर से आया था। फ़ारसी में इन बाग़ों को फ़िरदौस( जन्नत) कहा जाता है। जन्नत के लिये अंग्रेज़ी शब्द पैराडाइस इसी से बना है। मुख्य इमारत बाग़ों के बीचों-बीच होती थीं। इन बाग़ों के अंदर मक़बरे भी बनाये जाते थे। ऐसा माना जाता था कि इन मक़बरों का गहरा संबंध मरने के बाद के जीवन से है। मुग़ल गार्डन का महत्व इसलिये था कि तब दरबारों की जगह लगातार बदलती रहती थी। शाही ख़ानदान के लोग इन जगहों का इस्तेमाल आराम करने या फिर मनोरंजन के लिये करते थे।
भारत में चारबाग़ डिज़ाइन बाबर के साथ आयी थी । बाबर ने काबुल में अपने शासनकाल के दौरान कई बाग़ बनाये थे। लेकिन बाबर ने भारत में बाग़ सिर्फ़ अपने शौक़ के लिये नहीं बल्कि उपयोगिता के लिये बनाये थे। बाबर ने भीषण गर्मी से बचने के लिये बाग़ बनाने का फ़ैसला किया था और इसीलिये बाबर के बनाये गये बाग़ों के नज़दीक या आसपास बावड़ी और हमाम ज़रूर हुआ करते थे। बाबर के बाद के मुग़ल बादशाहों, ख़ासकर शाहजहां ने अपने सौंदर्यप्रेम के लिये बाग़ बनवाये। इसके लिये उन्होंने या तो बाबर के ज़माने के बाग़ों को दोबारा बनवाया या फिर उनमें फेरबदल किये। लुसी पेक ने अपनी पुस्तक “अगरा: द् आर्किटेक्चरल हेरिटेज” (2008), में लिखा है कि भारत में कहीं भी मौलिक चारबाग़ नहीं हैं।
आख़िर आगरा में कितने बाग़ थे? जयपुर सिटी पैलेस म्यूज़ियम में सन 1720 के नक़्शे के अनुसार आगरा में कम से कम 45 बाग़ हुआ करते थे। इनमें से ज़्यादातर बाग़ नदी किनारे पर हैं और कुछ ताजमहल के सामने हैं। इन बाग़ों की सैर आज भी की जा सकती है हालंकि ज़्यादतर बाग़ उजड़ी हुई हालत में हैं।
लुसी पेक ने ताजमहल के नज़दीक, नदी किनारे के क़रीब बाग़ों की सैर के लिये एक बढ़िया मार्ग पेश किया है। बाग़ों की सैर की शुरुआत होती है बाग़-ए-ज़र-अफ़्शां से जो संभवत: मुग़लों के बनवाए गए आरंभिक बाग़ों में से एक है। कहा जाता है कि इस बाग़ को बाबर ने बनवाया था। दरअसल समरक़ंद में ज़र-अफ़्शां नाम की एक नदी होती थी जो बाबर को बहुत पसंद थी। जहांगीर और नूरजहां ने जब इस बाग़ की मरम्मत करवाई तो इसका नाम बाग़-ए-नूर-अफ़्शां पड़ गया। इसका मौजूदा नाम रामबाग़ है जो आगरा पर मराठा शासन के दौरान पड़ गया था। माना जाता है रामबाग़ आराम बाग़ का ही अपभ्रंश है।
ज़हरा बाग़ या बाग़-ए-जहांआरा तो बिल्कुल ही ख़राब हालत में है। ऐसा माना जाता है कि इसे मुमताज़ महल ने बनवाया था और बाद में वह इसे अपनी बेटी जहांआरा के लिये छोड़ गईं थीं। जहां प्रमुख भवन को होना चाहिये था, अब वहां एक मंदिर है । बाग़ के नाम पर अब तो बस किनारे खड़ी कुछ छतरियां ही रह गईं हैं जो रामबाग़ से नज़र आती हैं। दक्षिण की तरफ़ एक बाग़ है जो एक बहुत ही बड़े मक़बरे से घिरा हुआ है। ये मक़बरा अफ़ज़ल शाह का है जो शाहजहां और जहांगीर का दरबारी हुआ करता था। अफ़ज़ल शाह का भाई मशहूर ख़त्तात (सुलेखक) था जिसने ताजमहल को सजाया-संवारा था। मक़बरे की चमकीली और असाधरण साज-सज्जा तथा कांच की टाइल्स की वजह से इसका नाम चीनी का रोज़ा पड़ गया है।
“ चीनी का रोज़ा “ से ज़रा और दक्षिण की तरफ़ जाने पर बाग़ वज़ीर ख़ान नज़र आता है । वज़ीर ख़ां शाहजहां के दरबारी थे। थोड़ा और दक्षिण की तरफ़ जाने पर शहज़ादे परवेज़ के नाम पर बाग़/मक़बरा है जो सन 1626 में बनवाया गया था। परवेज़, शाहजहां के भाईयों में से एक था। परवेज़ के निधन के बाद परवेज़ का परिवार यहां रहता था। उसकी बेटी की शादी दारा शिकोह से हुई थी।
ताज की विपरीत दिशा में नदी किनारे पर संभवत: सबसे मशहूर बाग़-मक़बरा शहज़ादे परवेज़ के मक़बरे के पास है। ये मक़बरा ऐतमाद-उद-दौला का है जिसे, दुर्भाग्य से आगरा के टूर गाइड्स में “ बेबी ताज” नाम दे दिया गया है। ऐतमाद-उद-दौला नूरजहां के पिता थे और नूरजहां ने अपने माता-पिता की याद में ये मक़बरा बनवाया था। उनके माता-पिता की सन 1621-22 के बीच मृत्यु हो गई थी। वास्तुकला और इतिहास की दृष्टि से इस मक़बरे का बहुत महत्व है क्योंकि आगे चलकर मुग़लों ने इसी आधार पर अनेक निर्माण करवाये थे। इस मक़बरे को बनवने में लाल पत्थर की जगह सफ़ेद संगमरमर का इस्तेमाल किया गया है। इसी को देखकर आगे चलकर ताजमहल में संगमरमर का इस्तेमाल किया गया। इसके अलावा मक़बरे की सबसे बड़ी ख़ासियत है भीतर पत्थरों पर की गई नक़्क़ाशी। यहां ज्यामितीय पैटर्न दिखाई पड़ता है जो ज़ाहिर है इस्लामिक वास्तुकला को दर्शाता है लेकिन कई जगह फूल भी अंकित हैं जो हालंकि फ़ारस में तो आमतौर में होते थे लेकिन भारत के पठार वाले इलाक़ों में ऐसे फूल नहीं उगते थे।
इतिहासकार एब्बा लोश और जे.पी. लॉस्टी ने अपने शोध-पत्र “द् रिवरसाइड मैंसन्स एण्ड टूम्ब्स ऑफ़ आगरा” में लिखा है कि आगरा में नदी किनारे बने बाग़ और मक़बरे एक समय मुग़ल भारत के दर्शनीय स्थल हुआ करते थे। सन 1648 में शाहजहां ने दिल्ली को अपनी राजधानी बना लिया और इसके साथ ही आगरा का पतन हो गया। आगरा शहर पर अंग्रेज़ों के कब्ज़े के पहले अफ़ग़ानों, जाटों और अन्य लोगों ने शहर पर धावा बोल ख़ूब लूटपाट की। इस अवधि का एक नया प्रमाण “आगरा स्क्रोल” में पाया गया है जो 763 सें.मी. लंबा है और जिसमें नदी के दोनों तरफ़ बनी इमारतें चित्रित हैं। उस समय नदी पूरे शहर में चारों तरफ़ बहती थी। इस मसौदे (स्क्रोल) में न सिर्फ़ बाग़ दिखाए गए हैं बल्कि रईसों और दरबारियों की इमारतें भी दर्शाई गई हैं। ज़्यादातर मकान शाहजहां के समय बने थे।
आगरा सिर्फ़ ताजमहल के लिये ही मशहूर नहीं है। दिल्ली के अलावा ऐसे बहुत कम शहर हैं जो मुग़ल वास्तुकला के मामले में आगरा को चुनौती दे सकें। समय के साथ आगरा शहर का चरित्र बदल गया है लेकिन मुग़ल बाग़ों के इन अवशेषों का अध्यन करने से, न सिर्फ़ इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों को फ़ायदा होगा बल्कि सैलानियों के लिये भी उनके बारे में जानकारियां दिलचस्प होंगीं क्योंकि इन अवशेषों में छुपा है शहर का सुनहरा ज़माना।
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