पूर्णिमा की रात को कुंए के पानी की सतह पर चांदनी की झिलमिल चादर-सी बिछ जाती थी। उसके अक्स से कुएँ की कई सीढ़ियां जगमगाने लगती थीं। ये पूरा दृश्य बेहद लुभावना होता था।
स्थानीय कथाओं और लोक-कथाओं के अनुसार, चांदनी रात में राजस्थान के आभानेरी गांव की चांद बावड़ी ऐसी ही दिखती थी। जयपुर से 93 कि.मी. दूर, दौसा ज़िले में स्थित ये, भारत की बावड़ियों या सीढ़ियों वाले शानदार कुंओं में से एक है। ये बावड़ी जहां अपनी वास्तुशिल्प सुंदरता के लिए जानी जाती है, वहीं इस छोटे से गांव में एक और दर्शनीय स्थान है, जिसे हर्षद माता मंदिर कहा जाता है। सुंदर मूर्तियों वाला ये प्राचीन मंदिर अपनी शिल्पकारिता और कला के लिए प्रसिद्ध है, जो भी आज भी यहां मौजूद है। कहा जाता है, कि ये दोनों स्मारक 8वीं-9वीं सदी के हैं और ये कला तथा वास्तुकला के बेहतरीन उदाहरण हैं, जो कभी इस क्षेत्र में फली-फूली होगी।
आभानेरी का इतिहास मिथक और लोक-कथाओं में खोया हुआ है। किसी समय इसे आभानगरी कहा जाता था।
यह भी कहा जाता है, कि यह 8वीं और 9वीं सदी में निकुंभ राजपूत शासकों का सत्ता केंद्र हुआ करता था। निकुंभ राजपूतों के वंशज अयोध्या के सूर्यवंशी शासक अथवा शासक थे। स्थानीय परंपराओं के अनुसार सूर्यवंशी शासक क़िले और अलवर नगर के स्वामी हुआ करते थे। अलवर नगर आभानेरी से 74 कि.मी. के फ़ासले पर है। दिलचस्प बात ये है, कि गांव में एक टीले से अनगढ़ लाल बर्तन और लाल रंग के खोल और सिलेटी रंग के बर्तन मिले हैं, जिससे लगता है, कि इस जगह का इतिहास कहीं और ज़्यादा पुराना रहा होगा, हालांकि यहां अभी खुदाई नहीं हुई है। आभानेरी या आभानगरी के साथ दिलचस्प कहानियां जुड़ी हुई हैं। चूंकि आभा का अर्थ प्रकाश अथवा चमक होता है इसलिए कहा जाता है, कि गांव का नाम बावड़ी पर पड़ा है जो चांदनी रात में झिलमिलाती थी। एक अन्य लोक-कथा के अनुसार गांव का नाम मंदिर की देवी हर्षद माता के नाम पर पड़ा है। हर्षद माता को अनकी आभा और भाव भंगिमा की वजह से हर्ष की देवी माना जाता है। लेकिन दस्तावेज़ों के अभाव में इन लोक-कथाओं को प्रमाणिक नहीं माना जा सकता।
जैन ग्रंथों में भी आभानगरी का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है, कि यहां कभी अमीर लोग रहा करते थे जिन्होंने यहां जैन मंदिर बनवाए थे और जैन आचार्यों के अगमन पर वहां समारोह आयोजित किया करते थे।
प्राचीन चांद बावड़ी
पश्चिम भारत के राजस्थान और गुजरात राज्य में सीढ़ियों वाले कुंओं को बाओली, बैड़ी, बावड़ी या फिर वाव के नाम से भी जाना जाता है। चूंकि इन क्षेत्रों में बहुत कम बारिश होती थी और साल के अधिकतर महीनों में यहां सूखा रहता था, इसलिए पानी के इंतज़ाम के लिए, ये बावड़ियां बनवाईं गईं थीं। ये बावड़ियां न सिर्फ़ जल प्रबंधन में मददगार होती थीं, बल्कि यहां स्थानीय लोग एकत्र होते थे और आराम भी करते थे।
आभानेरी की चांद बावड़ी की गिनती भारत में सबसे पुराने और सबसे बड़े सीढ़ियों वाले कुंओं में होती है। हालांकि ये बावड़ी कब और किसने बनाई थी, इसका कोई दस्तावेज़ नहीं है, लेकिन इसकी शैली और वास्तुशिल्प विशेषताओं के आधार पर माना जाता है, कि इसका निर्माण 8वीं और 9वीं सदी में हुआ होगा। कहा जाता है, कि इसे निकुंभ शासक राजा चंदा या राजा चंद्र ने बनवाया था जिनके नाम पर इस बावड़ी का नाम रखा गया। “स्टेप्स टू वॉटर- द एन्शियंट स्टेपवेल्स ऑफ़ इंडिया” की लेखिका मोर्ना लिविंगस्टन के अनुसार सीढ़ियों वाला ये कुआँ सबसे बड़ा कुआं था। लेखिका के अनुसार, ये उन बहुत कम जलाशयों में से है जिनमें कई सुविधाएं थीं।
दरअसल यह बावड़ी वास्तुकला के मामले में एक अजूबा है और बावड़ी के परिसर में खड़े होकर ही इसके महत्व और आकर्षण को समझा जा सकता है। बावड़ी की गहराई 19.5 मीटर है और ये देश की सबसे गहरी बावड़ी है। यहां 13 मंज़िलें हैं और चौकोर चबूतरे के रूप में बनी बावड़ी के तीन तरफ़ सीढ़ियां हैं और चौथी तरफ़ एक महल और एक मंडप है। कुआँ मध्य में है। बावड़ी में क़रीब तीन हज़ार पांच सौ(3,500) सीढ़ियां हैं जो ज्यामितीय पैटर्न में बहुत सुंदर तरीक़े से बनाईं गईं हैं। अंदर की तरफ़ सिर्फ़ 18 इंच के विस्तार की मदद से आठ फ़ुट नीचे उतरने के लिए 13 सीढ़ियों बनाई गई हैं ।
महल-मंडप को अब ग्रीष्म-महल कहा जाता है। उत्तरी दिशा में स्थित ये महल-मंडप स्तंभों पर आधारित है। निचली मंज़िलों में आगे की तरफ़ निकले हुए दो मंदिर हैं ,जिनमें महिषासुर मर्दिनी और गणेश की दो सुंदर प्रतिमाएं हैं। महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति, जिसमें देवी को असुर महिषासुर का वध करते दिखाया गया है, अपनी सुंदर कारीगरी के लिए जानी जाती है और विश्वास किया जाता है, कि इस रुप में देवी के पहले उदाहरणों में से एक है।
मोर्ना लिविंगस्टन अपनी किताब में लिखती हैं, कि इस बावड़ी में एकल सेटिंग में दो शानदार जल-घर हैं। खुला हुआ कुआँ , मंदिर और सीढ़ियां जहां 8वीं सदी की हैं, वहीं महल वाली ऊपरी मंज़िलों का निर्माण बाद में 18वीं सदी में मुग़ल काल में हुआ था। महल किसने बनवाया था, इसका भी कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है। स्थानीय परंपराओं के अनुसार जयपुर के महाराजा यहां गर्मियों में आया करते थे, क्योंकि महल ठंडा रहता था और इसीलिए इसे ग्रीष्म-महल (समर पैलेस) कहा जाता है। महल तीन मंज़िला है।
चांद बावड़ी मूलत: पानी जमा करने के लिए बनाई गई थी। जिस तरह से सीढ़ियां बनी हुई हैं, उन्हें देखकर लगता है, कि उन्हें बहुत ही गणितीय बारीकी से बनाया गया होगा। एक तरफ़ जहां बावड़ी बनवाने का मक़सद जल-आपूर्ति और जल-प्रबंधन था, वहीं इसका धार्मिक महत्व भी था। कहा जाता है, कि बावड़ी के पास मंदिर में आने वाले श्रद्धालु बावड़ी में अपने हाथ-पैर धोया करते थे।
पवित्र हर्षद माता मंदिर
बावड़ी के पास परिसर के बाहर है हर्षद माता मंदिर। हालंकि आज ये जर्जर अवस्था में है, लेकिन फिर भी लोग यहां आते हैं। कहा जाता है, कि बावड़ी की तरह ये मंदिर भी 8वीं-9वीं सदी का है, लेकिन विश्वास किया जाता है, कि इसका निर्माण बावड़ी के बाद हुआ होगा। पिछले कई वर्षों में मंदिर काफ़ी क्षतिग्रस्त हो चुका है। मंदिर का जो कुछ भी हिस्सा आज मौजूद है, उसे दोबारा बनाया गया था।
ये मंदिर हर्ष की देवी हर्षा माता यानी ख़ुशी का देवी को समर्पित है। लेकिन कई विद्वानों की राय है, कि शक्ति मंदिर के पहले ये वैष्णव मंदिर था। मंदिर दो पौड़ियों वाले चबूतरों पर बना हुआ है। गर्भगृह की शैली पंचरथ है, जिसके ऊपर खंबो पर बना मंडप और ड्योढ़ी है। गर्भगृह के पास एक औषधालय है। मंदिर की ख़ास बात उसकी मूर्तियां हैं। ये मंदिर के ऊपरी चबूतरे के स्तंभ पर बनी हुई हैं। ये मूर्तियां नृत्य, संगीत और प्रकृति के अलावा धार्मिक तथा सामाजिक विषयों को दर्शाती हैं।
इस क्षेत्र में ये मूर्तियां गुप्त काल के बाद के समय की कला के बेहतरीन उदाहरण हैं। यहां विष्णु, उनके वाहन और शिव की भी मूर्तियां हैं। शिव को अर्धनारीश्वर के रुप में दिखाया गया है। इसी तरह कृष्ण की भी मूर्ति है, जिन्होंने गोवर्धन पर्वत उठा रखा है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने मंदिर के आसपास बिखरी मूर्तियों को सुरक्षा कारणों से बावड़ी-परिसर के बरामदों में रखवा दिया है। मंदिर की मूर्तियां, राजस्थान में अलवर और जयपुर के कुछ संग्रहालयों में रखी हुई हैं।
हालंकि आभानेरी और उसके अद्भुत स्मारकों के इतिहास की पुष्टि के लिए बहुत ज़्यादा साक्ष्य मौजूद नहीं हैं, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं, कि यहां कला और वास्तुकला उत्कृष्ट थी। चांद बावड़ी और हर्षद माता मंदिर किसी पहेली से कम नहीं हैं। इन्हें ज़रुर देखा जाना चाहिए।
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