‘चन्द्रकांता’… नाम सुनते ही जादू, तिलस्म, शक्तियाँ, गूफ़ाए, से मिली जुली एक ऐसी ही एक तस्वीर सामने आती है, चलो इस तस्वीर को गहराई से देखते है। बाबू देवकीनंदन खत्री (1861-1913) की ‘चंद्रकांता’ उपन्यास के रूप में 1892 में लिखी गयी हिंदी भाषा की पहली सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तक थी और भाषा का पहला ‘तिलिस्मी ऐयारी’ उपन्यास भी। कहा जाता हैं कि बहुत से लोगो ने देवनागरी सिर्फ इस किताब को पढ़ने के लिए सीखी! इतिहासकार रामचंद्र शुक्ल अपनी किताब ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में लिखते हैं की ‘चंद्रकांता’ की बदौलत हिंदी पाठक बनना शुरू हुए, इससे पहले पाठकों की संख्या बहुत ही सीमित थी।
उस समय पर कुछ ही लोग देवनागरी पढ़ पाते थे, तो कहा जाता हैं कि लोग साथ में इकट्ठा होते थे किसी ऐसे इंसान के पास जिससे पढ़ना आता हो और वह सबको पढ़कर सुनाया करते थे!
यह उपन्यास विजयगढ़ की राजकुमारी चंद्रकांता और विरोधी राज्य नौगढ़ के राजकुमार के बीच की प्रेम कहानी पर आधारित हैं। लेखक देवकीनंदन खत्री का जन्म 1861 में बिहार के समस्तीपुर में हुआ था, जो बनारस के राज्य दरबार में काम करते थे। उन्होंने पहले कहानी धारावाहिक प्रकाशन के रूप में लिखी थी और हर अध्याय को नया ‘बयान’ कहते थे। यह बयान 1888 से 1891 तक प्रकाशित हुए और हर नए अध्याय का पाठकों को बैचनी से इंतज़ार रहता था। चार हिस्सों में विभाजित इस उपन्यास की कथा अनायास ही हमें मध्यकालीन प्रेमाख्यानक काव्यों का स्मरण कराती है।
कहा जाता हैं कि अपने युग में (और बहुत बाद तक भी) ‘चन्द्रकान्ता’ का जादू इस प्रकार छाया रहा था कि लोग उपन्यास को उपन्यास न कहकर ‘चंद्रकांता कहने लगे थे।
‘चंद्रकांता’ की लोकप्रियता के आधार पर खत्री ने सात और भाग लिखे, जिसे ‘चंद्रकांता संतति’ कहते हैं। इसी से जुड़े और भाग थे ‘भूतनाथ’ और ‘भूतनाथ संतति’, जो कुल मिलाकर 16 किताबें बन गयी और ‘चंद्रकांता’ को हिंदी में तब तक की सबसे लम्बी श्रृंख्ला बना दी! कुछ लोगो ने इसकी आलोचना भी की यह कह कर की यह बहुत हल्का-फुल्का साहित्य हैं, जो तवज्जुह के लायक ही नहीं। पर खत्री ने इन लोगो को ये जवाब दिया कि उन्होंने जानबूझकर ऐसी भाषा में लिखा हैं, ताकि आम इंसान भी आसानी से समझ पाए और पढ़ने का आनंद ले पाए।
देवकीनन्दन खत्री जी का जन्म 29 जून, 1861, में मुजफ्फ़रपुर, बिहार में हुआ था। उनके पिता का नाम लाला ईश्वरदास था। उनके पूर्वज पंजाब के निवासी थे तथा मुग़लों के राज्यकाल में ऊँचे पदों पर कार्य करते थे।महाराज रणजीत सिंह के पुत्र शेरसिंह के शासनकाल में लाला ईश्वरदास काशी में आकर बस गये। देवकीनन्दन खत्री जी की प्रारम्भिक शिक्षा उर्दू-फ़ारसी में हुई थी। बाद में उन्होंने हिंदी, संस्कृत एवं अंग्रेजी का भी अध्ययन किया। आरंभिक शिक्षा समाप्त करने के बाद वे गया के टेकारी इस्टेट पहुंच गये और वहां के राजा के यहां नौकरी कर ली। बाद में उन्होंने वाराणसी में एक प्रिंटिंस प्रेस की स्थापना की और 1883 में हिंदी मासिक ‘सुदर्शन’ की शुरुआत की। चन्द्रकान्ता बाबू देवकीनन्दन खत्री रचित अत्यन्त लोकप्रिय उपन्यासों में से एक है। यह बाबू देवकीनन्दन खत्री जी का पहला उपन्यास है जिसकी रचना हिन्दी गद्यलेखन के आरम्भ के दिनों में हुई थी।
1936 के पहले ही ‘चंद्रकांता’ के २० संस्करण हुए और यह आज भी प्रकाशित होती हैं! उपन्यास पर आधारित कार्यक्रम दूरदर्शन पर सालो तक मशहूर रहा और अब इस पर चलचित्र बनाने की भी बात चल रही हैं। ‘चन्द्रकांता’ एक ऐसी कहानी हैं जो कभी भी पुरानी नहीं होने वाली!