सुल्ताना डाकू का उल्लेख लोक कथाओं , साहित्य और यहां तक कि फ़िल्मो में भी मिलता है। और तो और, पश्चिम उत्तर प्रदेश में उसके नाम पर कई चुटकुले भी मशहूर हैं। सुल्ताना डाकू को भारत का रॉबिन हुड कहा जाता है, जिसने सन 1910 और सन 1920 के दशकों में उत्तर भारत के ऊपरी दोआब क्षेत्र में अमीरों और अंग्रेज़ो की नाक में दम कर दिया था। आईए जानते हैं, भारत के इस रॉबिन हुड के बारे में।
सुल्ताना का जन्म सन 1894 में मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) में एक ग़रीब भांतू आदिवासी परिवार में हुआ था। बचपन में ही उसके पिताजी का निधन हो गया था। अंग्रेज़ों ने भांतू समुदाय को “अपराधी जनजाति” घोषित कर दिया था। सुल्ताना की मां और दादा ने उसे “मुक्ति सेना” में भेज दिया था जिसका गठन अंग्रेज़ सरकार ने 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में किया था। ये सेना उन भारतीय आदिवासियों को सुधारने का काम करती थी, जो अपराध में लिप्त रहते थे। सेना इन्हें कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों में काम देती थी और कुछ सालों के बाद जिन लोगों में सुधार दिखाई देता था, उन्हें शिविर के बाहर किसानी का काम दे दिया जाता था। भारत में, इस सेना की 22 शाखाएं थीं जिनमें एक शाखा मुरादाबाद में भी थी। सुल्ताना 17 साल की उम्र तक सेना में रहा।
कहा जाता है, कि सन 1911 में सुल्ताना अपने कुछ दोस्तों के साथ दिल्ली भाग गया था। सन 1911 में दिल्ली दरबार के दौरान सुल्ताना कैसे वायसराय की विशेष ट्रेन में घुस गया और कैसे उसने किंग जॉर्ज पंचम का ताज चुरा लिया - इस घटना पर एक लोकप्रिय कहानी है, जिसमें अतिशयोक्ति भी हो सकती है या फिर महज़ एक लोक कथा भी हो सकती है। काफ़ी तलाश के बाद उस ताज को खोज निकाला गया और उस समय के प्रसिद्ध पुलिस अफ़सर ज़फ़र उमर ने उसे गिरफ़्तार कर लिया। इस असंभव-सी लगने वाली कहानी का ज़िक्र ‘नायाब हैं हम’ (2003) किताब में है । यह किताब ज़फ़र की बेटी हमीदा अख़्तर हुसैन राय पुरी ने लिखी है।
अलीगढ़ के रहने वाले पुलिस अफ़सर ज़फ़र आगे चलकर उर्दू जासूसी कहानियों के मशहूर लेखक बन गए जिसकी ‘नीली छतरी’ (1916) सबसे ज़्यादा बिकने वाली किताब मानी जाती है।
जेल में चार साल बिताने के बाद सुल्ताना अपने गिरोह से जा मिला। फिर उसने जर्जर पत्थरगढ़ क़िले में रहकर लूटपाट करने लगा। ये क़िला रोहिला नवाब नजीबउद्दौला (1736-1770) ने बनवाया था, जो किसी समय रोहिल्ला वंश का दुर्ग हुआ करता था। रोहिल्ला 18वीं सदी में एक राजनीतिक ताक़त हुआ करते थे। सन 1857 के विद्रोह के बाद क़िला तहस-नहस हो गया था। सुल्ताना द्वारा इसे अपना अड्डा बनाने के बाद ये क़िला में दोबारा जीवन लौट आया था।। चूंकि ये नैनीताल और देहरादून के रास्ते पर पड़ता था, इसलिए सुल्ताना के लिए अंग्रेज़ों और अमीरों को लूटना आसान होता था, जो अक़्सर इस रास्ते से हिल स्टेशनों पर जाया करते थे।

समय गुज़रने के साथ सुल्ताना का गिरोह बढ़ गया और इसमें क़रीब 250 लोग हो गए, जो अंग्रेज़ और उनके ख़ज़ाने को ले जाने वाली ट्रेनों को लूटते थे। सुल्ताना के निशाने पर अधिकतर अंग्रेज़ और अमीर लोग हुआ करते थे। कहा जाता है, कि वह लूट का माल कभी अपने लिए नहीं रखता था। वह लूट का माल अपने समुदाय के ग़रीबों तथा ज़रुरतमंदों में बांट देता था।
सन 1910 के अंतिम वर्षों में सुल्ताना अंग्रेज़ पुलिस की नज़रों में खलने लगा था। मामला तब और बढ़ गया, जब सुल्ताना ने सन 1917 में कोटद्वार (मौजूदा समय उत्तराखण्ड में) के ज़मींदार उमराव सिंह की हत्या की। सुल्ताना द्वारा धमकाए जाने के बाद उमराव ने इसकी सूचना पुलिस को देने की कोशिश की थी। सुल्ताना किसी को लूटने के पहले उसे धमकी देता था। सन 1918 में अंग्रेज़ प्रशासन ने रुड़की से लेफ़्टिनेंट कर्नल सेमुअल पीयर्स और गोरखपुर से लेफ़्टिनेंट फ़्रेडरिक एस. यंग को सुल्ताना को पकड़ने की ज़िम्मेदारी सौंपी। इन दोनों ने कई स्थानीय डाकू पकड़े थे। इन दोनों ने सुल्ताना के कामकाज के तरीक़े का अध्ययन किया। इन्होंने पुलिस के चंगुल से सुल्ताना और उसके गिरोह के सदस्यों के फ़रार होने के बाद की घटनाओं का भी अध्ययन किया।
पत्थरगढ़ क़िला अंग्रेज़ों की पहुंच के बाहर था, क्योंकि उस क्षेत्र में रहने वाले लोग सुल्ताना की रहम-ओ-करम पर निर्भर थे और अमीर लोग हत्या के डर की वजह से पुलिस के साथ सहयोग करने में हिचकते थे। सुल्ताना को पकड़ने के शुरुआती कोशिशों के दौरान अंग्रेज़ अफ़सर सुल्ताना के प्रति स्थानीय लोगों की वफ़ादारी और प्रेम देखकर हैरान रह गए। बहरहाल, सुल्ताना की बढ़ती हरकतों से अंग्रेज़ों के सब्र का बांध टूटने लगा। सन 1922 के अंतिम माह में अंग्रेज़ सुल्ताना के विश्वासपात्र अब्दुल रज़्ज़ाक़ को तोड़ने में सफल हो गये।
जनवरी, सन 1923 में पियर्स और यंग ने अपने तीन सौ सिपाहियों, जिन्हें स्पेशल डकैती पुलिस फ़ोर्स कहा जाता था, के साथ सुल्ताना को पकड़ने के लिए गोरखपुर से लेकर हरिद्वार तक क़रीब 14 दबिश डालीं। अंग्रेज़ पुलिस ने सितंबर सन 1923 तक धीरे-धीरे रोहिलखंड क्षेत्र की घेराबंदी कर ली। तब तक सुल्ताना की हैसियत पत्थरगढ़ क़िले के राजा की तरह हो चुकी थी। उसे अपने स्थानीय मुख़बिरों से अंग्रेज़ों की चाल के बारे में पता चल गया। कहा जाता है, कि एक रात जब अंग्रेज़ पुलिस क़िले के पास पहुंची, तो सुल्ताना और उसके साथी गोह (मॉनिटर लिज़र्ड) की मदद से क़िले की दीवार फांदकर फ़रार हो गए और तराई के जंगलों में जा छुपे, जहां वे तीन महीनों तक रहे। कहा जाता है, कि इस दौरान सुल्ताना एक गुफा में छुपा रहता था। डकैती के शुरुआती दिनों में भी सुल्ताना उसी गुफा में रहता था। ये गुफा “रॉबर्स गुफा” के के नाम से मशहूर हो गई, जो आज भी देहरादून में मौजूद है।

सन 1923 आते-आते अंग्रेज़ पुलिस का सुल्ताना के इलाक़े पर शिकंजा कस गया। सुल्ताना घने जंगल में छुपा हुआ था और उसने शिकंजा कसने के बाद आत्मसमर्पण करने के लिए अंग्रेज़ों के साथ मुलाक़ात की पेशकश की। यंग तैयार हो गया और दोनों की मुलाक़ात (समय और स्थान अज्ञात) हुई। सुल्ताना इस शर्त पर आत्मसमर्पण करने पर राज़ी था, कि उसके गिरोह द्वारा की गई हिंसा के लिए उसे फांसी पर नहीं लटकाया जाएगा। लेकिन यंग राज़ी नहीं हुआ और उसने कहा, कि या तो वह बिना शर्त आत्मसमर्पण करे या फिर ना करे। इस तरह ये बैठक बेनतीजा समाप्त हो गई। वापसी के वक़्त सुल्ताना ने यंग को चैतावनी दी कि वह, पुलिस कार्रवाई के दौरान उसकी गोली से सावधान रहे।

13 दिसंबर सन 1923 को अब्दुल रज़्ज़ाक़ ने सुलताना को भविष्य के लिए अपने अभियान की सूचना देने के लिए एक स्थान पर बुलाया। अगले दिन वहां पहुंचने पर यंग और उसके सिपाहियों ने सुल्ताना को घर गेर लिया। सुल्ताना ने गोली चलाने की कोशिश की लेकिन पुलिस ने उसकी बंदूक उससे छीन ली। सुल्ताना ने भागने की कोशिश की लेकिन एक कांस्टेबल ने बंदूक के कुंदे से उसके पांव पर वार किया और इस तरह सुल्ताना और उसके साथी पकड़े गये।

कई दस्तावेज़ों से पता चलता है, कि सुल्ताना को आगरा या फिर हल्दवानी में रखा गया था। यहां उसकी रहमदिली और व्यक्तित्व को देखते हुए यंग ने उससे दया याचिका दायर करने की सलाह दी, लेकिन सुल्ताना ने इनकार कर दिया था। लेकिन यंग की विनम्रता का सम्मान करते हुए, सुल्ताना ने यंग से उसके सात साल के छोटे बेटे राजकुमार को पढ़ाकर कर ‘बड़ा साहब’ बनाने की प्रार्थना की। ये सब जानते है, कि राजकुमार को पढ़ाई के लिए इंग्लैंड भेजा गया था और वह वापस आकर भोपाल में रहने लगा था। आठ जुलाई सन 1924 को, महज़ 29 साल की उम्र में सुल्ताना को फांसी दे दी गई। तलाशी अभियान के दौरान लेफ़्टिनेंट फ्रेडी यंग के साथ एक अन्य अंग्रेज़ अफ़सर जिम कॉर्बेट भी था, जिसने अपनी किताब ‘माय इंडिया’ में एक पूरा अध्याय ‘सुल्ताना: इंडियाज़ रॉबिन हुड’ सुल्ताना पर लिखा है.।
हालंकि पियर्स के बारे में कोई जानकारी नहीं है, लेकिन यंग को पदोन्नत कर जयपुर रियासत का पुलिस महानिरीक्षक बनाया गया था। इसके बाद सन 1939 में उसे संयुक्त प्रांतों में उप-महानिरीक्षक और सन 1942 में सिंध प्रांत में मुख्य मार्शल लॉ प्रशासक का ख़ुफ़िया अधिकारी बनाया गया। इस पद पर वह तीन साल तक रहा। महानिरीक्षक के रुप में उसने अपने अंतिम दिन भोपाल में बिताए । 21 दिसंबर सन 1948 को उसका निधन हो गया।

सुल्ताना को बारे में कई लोक कथाएं प्रचलित हैं । उस पर नाटक और कविताएं भी लिखी गई हैं तथा पेंटिग्स भी बनाई गई हैं । इसके अलावा उसपर फ़िल्में भी बनी हैं। सुजीत सराफ़ की किताब ‘द कन्फ़ेशन ऑफ़ सुल्ताना डाकू’ में सुल्ताना नाम के डाकू के जीवन के बारे में गहरी जानकारियां मिलती हैं ।
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