महर्षि कर्वे: महिला सशक्तिकरण के अग्रणी

महर्षि कर्वे: महिला सशक्तिकरण के अग्रणी

आज हम हर क्षेत्र में महिलाओं द्वारा झंडे गाड़ने की बात करते हैं, लेकिन उन्नीसवीं सदी में हालात एकदम अलग थे। महिलाएं, ख़ासकर विधवाएं, बहुत दयनीय परिस्थितियों में रहती थीं। महिलाओं की अपनी कोई पहचान तक नहीं थी। तब एक ऐसा व्यक्ति सामने आया, जिसकी वजह से ऐसी महिलाओं में एक उम्मीद की किरण जागी। उस व्यक्ति ने उन्हें, उनके दुखों से आज़ाद किया और महिलाओं के लिए देश में पहला विश्वविद्यालय स्थापित कर, उनके लिए शिक्षा का रास्ता खोला।

महर्षि धोंडो कर्वे, जिन्हें स्नेह से अन्ना (बड़ा भाई) कहकर भी बुलाया जाता था, एक समाज सुधारक और शिक्षाविद थे, जिन्होंने विधवाओं के उद्धार और उनकी शिक्षा के लिए काम किया था।

महर्षि धोंडो कर्वे का जन्म महाराष्ट्र में, 18 अप्रैल सन 1858 को मुरुड गांवके कर्वे परिवार में हुआ था। उन्होंने मुंबई के एल्फ़िंस्टोन कॉलेज से गणित विषय में स्नातक किया और उसके बाद सन 1891 में पुणे के फ़र्ग्यूसन कॉलेज में गणित के प्रोफ़ेसर बनें।

उन्नीसवीं सदी में विधवाओं को सामाजिक कलंक के रुप में देखा जाता था| उन्हें कठिन प्रस्थितियों में के साथ अपमान भरा जीवन जीना पड़ता था और वह पुरुषों के दुर्व्यवहार का शिकार होती थीं। न तो कोई बात सुनने वाला था और न ही कोई मदद करने वाला। विधवाओं की दुर्दशा ने कर्वे पर गहरा असर डाला।

सन 1893 में, कर्वे के जीवन में,एक बड़ा मोड़ आया। पत्नी राधाबाई के देहांत के बाद जब उन्होंने दूसरी शादी करने का फ़ैसला किया। तब उनकी दूसरी पत्नी गोदुबाई (आनंदीबाई) की उम्र बीस साल के आसपास थी। गोदुबाई ख़ुद भी आठ साल की उम्र में विधवा हो गईं थीं। गोदुबाई पहली महिला थीं, जो पंडिता रमाबाई के बाल विधवा और निस्सहाय महिलाओं के शारदा भवन (शिक्षा गृह) में शामिल हुईं थीं। पंडिता रमाबाई महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाली कार्यकर्ता थीं और वह महिलाओं में शिक्षा के प्रसार की अग्रज थीं। कर्वे के इस विवाह से बहुत बड़ा बखेड़ा खड़ा हो गया और उन्हें तथा उनकी पत्नी आनंदीबाई को समाज से बहिष्कृत कर दिया गया। लेकिन इन बातों की परवाह किए बग़ैर दोनों अपनी मुहिम में जुटे रहे।

कर्वे और आनंदीबाई | https://maharshikarve.ac.in/annas-journey/

कर्वे जो कहते थे, वही करते भी थे। उन्होंने दाई का काम सीखने के लिए, एक साल का कोर्स करने के लिए आनंदीबाई को नागपुर के डफ़रिन अस्पताल भेजा। उनका मानना था, कि हर व्यक्ति को अपने पांवों पर खड़ा होना चाहिए। आनंदीबाई की अनुपस्थिति में उन्होंने, घर और बच्चों की देखभाल ख़ुद की।

हालंकि विधवा पुनर्विवाह क़ानून 1856 में बन चुका था लेकिन तब इस पर अमल बहुत कम हुआ था। कर्वे ने विधवा-विवाह मुहिम का बीड़ा उठाया और उन लोगों को मंच मुहैया कराया, जो इस पर विश्वास करते थे। कर्वे ने महाराष्ट्र के वर्धा में 31 दिसंबर 1893 को एक बैठक बुलाई, जिसके बाद विधवा-विवाह संगठन की स्थापना हुई, जिसके वह सचिव बने। प्रसिद्ध प्राच्य विद्या विशारद औऱ विद्वान डॉ. आर.जी. भंडारकर को संगठन का अध्यक्ष बनाया गया। संगठन ने कई महत्वपूर्ण काम किए और इनमें से एक काम था दोबारा विवाह करने वाली विधवाओं के बच्चों के लिए हॉस्टल बनाना। ये हॉस्टल पुणे में कर्वे के घर से शुरु हुआ था। हालंकि हॉस्टल बहुत लंबे समय तक नहीं चल सका, लेकिन संगठन ने ग़रीब तबक़े के बच्चों की वित्तीय सहायता जारी रखी।

इस दौरान कर्वे को एहसास हुआ ,कि अगर विधवाओं को बंधनों से मुक्त कराना है, तो ठोस क़दम उठाने पड़ेंगें। बजाय समाज और लोगों से तर्क-वितर्क करने के कर्वे ने विधवाओं को शिक्षित करने और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने का फ़ैसला किया। अपनी आत्मकथा “लुकिंग बैक” में वह लिखते हैं-

“विधवा-विवाह संगठन में काम करने और मेरे जनसंपर्क से मुझे एहसास हुआ, कि इस सुधार के लिए जनमत बनाने में बहुत समय लगेगा और इसे आगे बढ़ाना बहुत मुश्किल होगा, भले ही कुछ लोग कितना ही प्रशंसनीय काम कर लें। मुझे लगा, कि इस दिशा में आगे बढ़ने का सबसे बेहतर तरीक़ा विधवाओं को शिक्षित करना होगा। शिक्षा से वे आत्मनिर्भर बनेंगी और ख़ुद के बारे में सोच सकेंगी। विधवा के परिजन और अभिभावक समाज द्वारा विधवाओं के अपमान और उत्पीढ़न के बारे में कम और अपने हितों के बारे में ज़्यादा सोचते हैं। शिक्षित होने पर विधवाएं अपने हितों को लेकर जागरुक होंगी और उनमें सही दिशा में आगे बढ़ने का साहस पैदा होगा।”

पंडिता रमाबाई के शारदा सदन की सफलता से प्रभावित होकर कर्वे ने सन 1896 में, महाराष्ट्र के हिंगणे गांव में “हिंदू विडोज़ होम” स्थापित किया। इसका मक़सद विधवाओं को शिक्षित करना और उन्हें आसरा देना था। यहां दाख़िला लेने वाली पहली छात्रा, उनकी बीस साल उम्र की विधवा साली, पार्वतीबाई अठवाले थीं। कर्वे, अपने काम के प्रति इतने समर्पित थे, कि हर दिन पुणे से हिंगणे पैदल जाते थे। हिंगणे, पुणें से क़रीब चार मील के फ़ासले पर था। “हिंदू विडोज़ होम” को आज “महर्षि कर्वे स्त्री शिक्षण संस्था” के नाम से जाना जाता है।

महर्षि कर्वे स्त्री शिक्षण संस्था | विकिमीडिआ कॉमन्स

सन 1907 में कर्वे ने महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए छह छात्राओं के साथ पूना में महिला विद्यालय शुरु किया ।बीस साल की उम्र के पहले लड़कियों की शादी को रोकने और उनकी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए कर्वे ने “ब्रह्मचर्य योजना” तैयार की।

सन 1941 में फ़र्गुसन कॉलेज से सेवानिवृत होने के बाद भी कर्वे ने महिला शिक्षा का अपना अभियान जारी रखा। उन्होंने तोक्यो में जापान वीमेंस यूनिवर्सिटी से प्रेरणा लेते हुए, सन 1916 में पूणे में महिला विश्वविद्यालय की शुरुआत की। उन्होंने जापान वीमेंस यूनिवर्सिटी के बारे में एक पत्रिका में पढ़ा था। विश्वविद्यालय के लिए धन एकत्र करने के लिए उन्होंने बिना थके पूरे देश का दौरा किया।

सन 1920 में परोपकारी विट्ठलदास ठैकेर्सी ने अपनी मां की याद में विश्वविद्यालय को 15 लाख रुपए का दान किया। विश्वविद्यालय का नाम बदलकर श्रीमती नत्थीबाई दामोदर ठैकेर्सी रख दिया गया। एस.एन.डी.टी. नाम से लोकप्रिय यह भारत और दक्षिण पूर्व एशिया में महिलाओं का पहला विश्वविद्यालय था। विश्वविद्यालय की पहली पांच छात्रों ने सन 1921 में ग्रेजुएशन किया । इस विश्वविद्यालय से ऐसी महिलाएं पढ़कर निकली हैं, जिन्होंने विश्व में नाम कमाया है और जिनपर विश्वविद्यालय गर्व करता है। इनमें हिंदी की प्रमुख लेखिका चित्रा मुदगल, भारतीय शास्त्रीय गायिका प्रभा अत्रे, फ़ैशन डिज़ाइनर अनिता डोंगरे, बॉलीवुड अभिनेत्री रानी मुखर्जी और सोनाक्षी सिन्हा आदि जैसे कई महिलाएं शामिल हैं।

समाज सुधार के क्षेत्र में महान योगदान के लिए कर्वे को “महर्षि” (महान ऋषि) का ख़िताब मिला।

महिलाओं के लिए सुधार-कार्य के अलावा महर्षि कर्वे अन्य कामों से भी जुड़े थे। उन्होंने सन 1936 में गांवों के बच्चों में शिक्षा के प्रसार के लिए“महाराष्ट्र विलेज प्राइमेरी एजुकेशन सोसाइटी” (महाराष्ट्र ग्राम प्राथमिक शिक्षा सोसाइटी) की स्थापना की। सभी को समान शिक्षा दिलवाने के लिए सन 1944 में उन्होंने “समानता संघ” की स्थापना की।

महर्षि कर्वे को कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा गया। उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, पुणे विश्वविद्यालय और एस.एन.डी.टी विश्वविद्यालय ने डी.लिट की मानद उपाधि से सम्मानित किया था।

कर्वे की 100वीं वर्षगांठ पर भारत सरकार ने सन 1958 में, उनके सम्मान एक डाक टिकट जारी किया था। वह पहले जीवित व्यक्ति थे, जिनका चित्र डाक टिकट पर छपा था। इसी साल उन्हें भारत रत्न के सम्मान से भी नवाज़ा गया था।

कर्वे के सम्मान में उनका डाक टिकट | विकिमीडिआ कॉमन्स

धोंडो केशव कर्वे का, 104 साल की उम्र में देहांत हो गया। उन्होंने अपने जीते जी अपने सपने को साकार होते देखा। आज महाराष्ट्र में “महर्षि कर्वे स्त्री शिक्षण संस्था” की कई शाखाएं हैं और महिलाओं के लिए क़रीब 65 शैक्षिक संस्थाएं चलती हैं। एस.एन.डी.टी विश्वविद्यालय की चार शाखाएं और 39 विभाग हैं। ये दोनों संस्थाएं महर्षि की दूरदृष्टि और कर्मठता की साक्षी हैं।

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