नजफ़गढ़: राजधानी में एक किंगमेकर

नजफ़गढ़: राजधानी में एक किंगमेकर

नजफ़गढ़ राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में एक उपनगर है जो ग्रे लाइन पर एक प्रमुख मेट्रो स्टेशन है लेकिन ‘नजफगढ़’ शब्द मुग़ल इतिहास की एक ख़ास शख़्सियत के बारे में दिलचस्प कहानी भी बयां करता है।

मिर्ज़ा नजफ़ ख़ान बंगाल के नवाबों और मुग़ल बादशाह का ईरानी सैनिक कमांडर था और उसने 18वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में उत्तर भारत की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मौजूदा समय में दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली के नजफ़गढ़ शहर में नजफ़ ख़ान ने अंग्रेजों, सिखों और रोहिलों के हमलों से दिल्ली सल्तनत की रक्षा के लिए एक विशाल क़िला बनवाया था। ये सभी दिल्ली के मुग़ल साम्राज्य के लिए ख़तरा थे। लेकिन अफ़सोस है कि आज उस क़िले का कोई निशान नहीं बचा है।

मिर्ज़ा नजफ़ ख़ान

विडंबना यह है कि दिल्ली के ज़्यादातर लोग ये नहीं जानते है कि नजफ़ ख़ान कौन था हालंकि इसके नाम पर शहर के कई स्थान हैं। नजफ़गढ़ नाला साहिबी नदी की एक नहर है। साहबी नदी धनसा गांव में दिल्ली प्रवेश करती है। ये नदी राजस्थान के अलवर ज़िले से शुरु होती है और दिल्ली के पास यमुना में मिल जाती है। अब नजफ़गढ़ नाला दिल्ली के सबसे प्रदूषित जल का पर्याय है।

नजफ़गढ़ क्षेत्र में नजफ़गढ़ तालाब है। सन 1960 के दशक तक तालाब में साहिबी नदी का पानी भरता रहता था। मॉनसून में नदी का पानी नजफ़गढ़ में घुस जाता था जिसकी वजह से 300 स्क्वैयर कि.मी. का इलाक़ा जलमग्न हो जाता था। सन 1960 के दशक में दिल्ली बाढ़ नियंत्रण विभाग ने यमुना नदी से जोड़ने के लिए नहर बनवाई ताकि इलाक़ें से पानी बाहर निकाला जा सके और इसे पानी से डूबने से बचाया जा सके।

इस शख़्स के नाम पर कई स्थान हैं और ऐसी ही एक सड़क है नजफ़ ख़ान रोड जो दिल्ली के लोधी एस्टेट में उसके मक़बरे की तरफ़ जाती है। तो फिर मिर्ज़ा नजफ़ ख़ान आख़िर था कौन ? और उसने इतिहास में क्या भूमिका निभाई? इसके बारे में जानने के लिए चलिए बात करते हैं पलासी की लड़ाई की जो 1757 में लड़ी गई थी।

बंगाल में संकट

सन 1757 में पलासी के युद्ध के बाद अंग्रेजों ने बंगाल के नवाब सिराज-उद-दौला को हटाकर उसकी जगह मीर जाफ़र को गद्दी पर बैठा दिया। मीर जाफ़र अंग्रेजों की पिट्ठू था लेकिन वह जल्द ही ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की अंतहीन मांगों से परेशान हो गया। उसने डच सेनाओं के साथ मिलकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ साज़िश रचना शुरू कर दी। जब वह अपनी साज़िशों में नाकाम हो गया तो सन 1760 में अंग्रेज़ों ने उसकी जगह उसके दामाद मीर क़ासिम को ये सोचकर गद्दी पर बैठा दिया कि उसे क़ाबू में रखना आसान होगा। लेकिन वह अंग्रेज़ों की सबसे बड़ी भूल थी।

मीर क़ासिम

मीर क़ासिम की जल्द ही ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ अनबन शुरू हो गई। स्थानीय व्यापारियों की तुलना में अंग्रेज़ व्यापारियों को कहीं ज़्यादा अनुचित लाभ मिलते थे। मीर क़ासिम दोनों के लिए समान क़ानून चाहता था। इसने स्थानीय व्यापारियों के लिए सभी करों को समाप्त कर दिया और स्थानीय उत्पादों को विदेशी उत्पादों की तरह सस्ता कर दिया क्योंकि कंपनी ने नौ प्रतिशत समान कर देने से मना कर दिया था। इस तरह मीर क़ासिम और अंग्रेज़ों के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो गई। अंग्रेज़ सन 1763 आते आते मीर क़ासिम को सत्ता से बेदख़ल करना चाहते थे। इस तरह दोनों की सेनाओं के बीच लड़ाई का सिलसिला चल पड़ा।

मीर कासिम के जनरलों में सबसे जाना माना था मिर्ज़ा नजफ़ ख़ान जो घुड़सेना का कमांडर था। इसका संबंध ईरान के शाही सफ़वी वंश से था। ये कुछ ही दिनों पहले ही इस्फ़हान से भारत आया था। नादिर शाह ने जब सफ़वी साम्राज्य को हरा दिया तो मिर्ज़ा नजफ़ ख़ान सन 1735 में दिल्ली में मुग़ल दरबार की सेवा में आ गया।

मीर क़ासिम के जनरल के रूप में नजफ़ ख़ान ने अपने दुश्मन, ईस्ट इंडिया कंपनी की गतिविधियों पर नज़र रखने के कई तरीक़े खोज लिए थे। उदाहरण के लिए सन 1763 में मुर्शीदाबाद की लड़ाई के दौरान उसने एक पहाड़ी के नीचे दलदल वाली जगह से गुज़रने के वास्ते, अपनी सैनिकों के लिए स्थानीय लोगों की मदद ली। पहाड़ी के नीचे अंग्रेज़ सैनिक मीर जाफ़र के सैनिकों के साथ घात लगाए बैठे थे। अंग्रेज़ मीर क़ासिम को सत्ता से बेदख़ल कर मीर जाफ़र को फिर गद्दी पर बैठाना चाहते थे। नजफ़ ख़ान ने इस शिविर को धव्स्त कर दिया जिससे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को बहुत नुक़सान पहुंचाया।

मीर क़ासिम के जनरलों में नजफ़ ख़ान सबसे बहादुर था और उसने अपने सैनिकों में वफ़ादारी की भावना कूट कूट कर बर दी थी। बहादुर होने के अलावा वह एक मुखर व्यक्ति भी था और उसने ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ एक बड़ा मुग़ल गठबंधन बनाने के मक़सद से मीर क़ासिम को अवध के नवाब शुजाउद्दौला के अपने साथ लेने की सलाह दी थी। मुग़ल बादशाह शाह आलम- द्वितीय की सेना भी इस गठबंधन का हिस्सा थी।

लेकिन गठबंधन विफल हो गया। सन 1764 में बक्सर के युद्ध में इसकी संयुक्त सेना पराजित हो गई। ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगभग 850 सिपाही मारे गए लेकिन मुग़ल महागठबंधन को 5,000 सैनिकों से हाथ धोना पड़ा। इस हार से मीर क़ासिम निराश हो गया था। सन 1777 में उसने दिल्ली के पास, ग़रीबी के हालात में दम तोड़ दिया था।

अवध का रुख़

शुजाउद्दौला अवध का नवाब तो था लेकिन ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उसका साम्राज्य छोटा दिया था पिर उसे युद्ध की क्षतिपूर्ति भी दा करनी पड़ रही थी । अवध की सत्ता अंग्रेज़ों के हाथों में थी। लेकिन
नजफ़ ख़ान लगातार तरक़्क़ी पाता जा रहा था। उसने बड़ी होशियारी से अपनी बहन की शादी शुजाउद्दौला से करवा दी और अवध के नायब-वज़ीर का पद हासिल कर लिया।

नवाब शुजाउद्दौला 

इसी बीच, मुग़ल सम्राट शाह आलम- द्वितीय बक्सर के युद्ध में अपनी हार के बाद, इलाहाबाद में फंस हुआ था। हालंकि शाह आलम- द्वितीय को शहर में रहने की अनुमति मिल गई थी लेकिन उसकी नज़रें दिल्ली पर गढ़ी हुईं थीं और वह चाहता था कि उसे लाल क़िले में बतौर मुग़ल बादशाह बहाल किया जाय। उस समय लाल क़िला रोहिल्ला सरदार ज़बीता ख़ान के कब्जे में था। रोहिल्ला अफ़ग़ानी था ओर उसके साथी पूर्वी दिल्ली के इलाक़ों में बस गए थे। मुग़ल सत्ता के पतन का लाभ उठाते हुए उसने मुग़ल राजधानी के आसपास बड़े क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था।

ये वो समय था जब मराठा सन 1761 के पानीपत युद्ध में हार के बाद उत्तऱ भारत के हिस्सों को फिर जीत रहे थे। उनके कमांडर, महादजी सिंधिया और तुकोजी होलकर एक दूसरे के प्रतिद्वंदी होने के
बावजूद शाह आलम- द्वितीय को दिल्ली में फिर तख़्तनशीं करने में मदद के लिए तैयार हो गए। वह शाह आलम को नाममात्र का बादशाह चाहते थे और राज ख़ुद करना चाहते थे। शाह आलम- द्वितीय को दिल्ली ले जाने के लिए मराठों को एक ऐसे जनरल की ज़रुरत थी जो अपने सैनिकों में लोकप्रिय भी हो और साथ ही उसे सम्मान भी हासिल हो। ये तलाश मिर्ज़ा नजफ़ ख़ान पर आकर ख़त्म हो गई।

बादशाह शाह आलम-द्वितीय

बादशाह शाह आलम-द्वितीय ने अपने नए जनरल के साथ इलाहाबाद से दिल्ली तक के मार्ग की सावधानीपूर्वक योजना बनाई। पहले उन्हें दीग के जाट राजा और फिर रोहिला सेनापति ज़बीता खान को हराना था। दिल्ली और आगरा के बीच बहुत-सी ज़मीन पर जाट राजा का कब्ज़ा था। इन क्षेत्रों को फिर जीतने के बाद ही नजफ़ ख़ान की सेना रोहेलखंड में दाख़िल हो सकती थी। 17 जनवरी सन 1772 को शाह आलम- द्वितीय नजफ़ ख़ान और महादजी सिंधिया के साथ ज़बिता ख़ान के क़िले पर हमले के लिए रवाना हुआ। लड़ाई में तब एक मोड़ आया जब नजफ़ ख़ान हरिद्वार से एक पूरा दिन पैदल चलकर चंडीघाट में, गंगा नदी के पार एक द्वीप तक, अपने ऊँटसवार सेना को ले जाने में कामयाब हो गया। इसी वजह से ज़बीता खान को भागकर पाथरगढ़ (अब उत्तर प्रदेश के बिजनौर ज़िले में नजीबाबाद) में शरण लेनी पड़ी।

नजफ़ ख़ान ने पानी की आपूर्ति काटकर लाल क़िले पर दुश्मनों की घेराबंदी समाप्त कर दी। रोहिल्ला की हार के साथ ही शाह आलम- द्वितीय का दिल्ली पहुंचने का रास्ता साफ़ हो गया। लाल क़िले में ताजपोशी के बाद शाह आलम-द्वितीय ने नजफ़ ख़ान को भरे दरबार में वज़ीर-ए-ख़ज़ाना के पद पर बहाली की और हांसी तथा हिसार में ज़मीनों के तोहफ़ों से नवाज़ा।

लेकिन नजफ़ ख़ान का काम यहीं ख़त्म नहीं हुआ था। उसने ज़मीनों से मिलने वाले राजस्व की मदद से और सैनिक टुकड़ियां बनईं जिसमें बेसहारा रोहिल्ला भी थे। नजफ़ क़ान ने कई बर्तानी सड़ाकाओं को भी अपने साथ रखा था । इनमें अलसैशियन हत्यारा ब्रेटन रेने मैडेक, वाल्टर रेनहार्ड्ट, जिसे ‘सुमरू’ के नाम से जाना जाता था और स्विस साहसी अंतोनी पोलियर जैसे उच्च-स्तरीय सैनिक शामिल थे। अंतोनी पोलियर ने कलकत्ता में विलियम फ़ोर्ट फिर बनाने में ईस्ट इंडिया कंपनी की मदद की थी। इस क़िले को शुजाउद्दौला ने नष्ट कर दिया था। नजफ़ ख़ान की सेना में फ्रांस के अभिजात वर्ग का कोंच दे मोदावे भी शामिल हो गया। उसने दुश्मनों को चौंकाने के लिए, क़रीब छह हज़ार नागा संयासियों की फौज भी खड़ी कर दी थी।

साम्राज्य पर दोबरा कब्ज़ा

इसके बाद, नजफ़ ख़ान ने मुग़ल साम्राज्य के हिस्सों को फिर से जीतने का सिलसिला शुरु किया। 27 अगस्त सन 1773 को उसने दीग के जाट राजा नवल सिंह की उत्तरी चौकी मैदानगढ़ी पर कब्जा कर लिया, जो एक बड़ा मिट्टी का क़िला था। ये अब दिल्ली में है और यहां आज इग्नू का मुख्यालय है। बाद में जाटों के खिलाफ सैन्य अभियान में नजफ़ ख़ान घायल हो गया था लेकिन वह उन्हें हराने में कामयाब रहा।

रामगढ़ के विशाल क़िले को जीतने के बाद नजफ़ ख़ान ने इसका नाम बदलकर ‘अलीगढ़’ रख दिया जो अब दक्षिण-पूर्व दिल्ली से लगभग 130 किलोमीटर दूर अलीगढ़ शहर में है। फिर उसने आगरा में पुराने मुग़ल क़िले पर विजय प्राप्त की। चार साल से भी कम समय में नजफ़ ख़ान ने मुग़ल प्रभुत्व के लगभग सभी महत्वपूर्ण गढ़ों को फिर कब्ज़ा कर लिया था। यहां तक कि उसका दिल्ली के आसपास के कई हिस्सों पर नियंत्रण था।

कई सफलताओं के बावजूद मिर्ज़ा नजफ़ ख़ान को दरबार की जटिल राजनीति से जूझना पड़ा। इसमें उसका चिर प्रतिद्वंदी कश्मीरी सुन्नी मुसलमान अब्दुल अहमद ख़ान भी शामिल था जो शाह आलम- द्वितीय का वज़ीर था। उसे शिया मुसलमान नजफ़ ख़ान का आगे बढ़ना बर्दाश्त नहीं था।

नजफ़ ख़ान सन 1775 में बीमार हो गया। जब वह बीमार था, तो जाटों ने, जिन्हें उसने हराया था, मुग़ल बादशाह शाह आलम- द्वितीय के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया। नवंबर सन 1779 में अपने कट्टर प्रतिद्वंद्वी अब्दुल अहमद ख़ान के बादशाह की नज़रों से गिरने के बाद, मिर्ज़ा नजफ़ ख़ान को रीजेंट यानी वकील-ए-मतक़ल बना दिया गया और तब वह केवल 42 साल का था। इतनी बड़ी पदोन्नती के बाद नजफ़ ख़ान लगातार बुख़ार और बीमारी से पीड़ित रहने लगा।

नजफ़ ख़ान को तपेदिक हो गई थी और अगस्त सन 1781 तक उसने बिस्तर पकड़ लिया था। मिर्जा नजफ ख़ान का 6 अप्रैल सन 1782 को, 46 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उसे ज़ुल्फ़िक़ार-उ-द्दौला का ख़िताब दिया गया।

नजफ़ ख़ान का मक़बरा दिल्ली के लोधी एस्टेट इलाक़े में, अवध के दूसरे नवाब सफ़दरजंग के मक़बरे से बहुत दूर नहीं है। मक़बरे का निर्माण सन 1782 में उनकी प्रिय बेटी फ़ातिमा ने शुरू करवाया था लेकिन पैसा ख़त्म हो गया और मक़बरे परिसर का निर्माण आज भी पूरा नही हुआ है। मक़बरे की केवल पहली मंज़िल बनी है और चारदीवारी पूरी है।

नजफ़ ख़ान की मृत्यु के दो वर्षों के भीतर ही बादशाह शाह आलम- द्वितीय के लिए उसने जो भी क्षेत्र जीते थे, वे सब बादशाह के हाथ से निकल गए। विडंबना यह थी कि नजफ़ ख़ान के लिए एक अच्छा
मक़बरा बनाने तक के लिए पर्याप्त पैसा नहीं था। सन 1820 में नजफ़ ख़ान की मृत्यु के बाद उसकी बेटी फ़ातिमा ने इस मकबरे के परिसर में अपने पिता के पास दफन होना चुना।

जब अंग्रेज़ सन 1911 से सन 1931 तक, अपनी नई राजधानी नई दिल्ली बना रहे थे, तब मक़बरे का परिसर ढ़हने से बाल बाल बच गया। इसे “ख़राब मरम्मत वाला माना जाता था और कहा जाता है कि यहां का परिवार पुराने समय के दौरान अंग्रेज़ सरकार के प्रति वफ़ादार नहीं था। हालांकि ये भी इसे ढहाने का एक कारण हो सकता था।

हालाँकि यह मक़बरा अधूरा है लेकिन पूरा परिसर संरक्षित किया गया है और अब यह एक सार्वजनिक पार्क है। असली मक़बरे का प्रवेश-द्वार और पहली मंज़िल सीमा से बाहर है। मक़बरे के परिसर में ईरानी चार बाग़ की डिज़ाइन की झलक मात्र दिखती है।

मुग़ल-काल में मक़बरे ईरानी चार बाग़ शैली में बनवाए जाते थे।इस शैली में घास वाले मैदानों को चार भागों में बांटा जाता है और वहां पेड़ लगाए जाते हैं। यहां रुक कर आप एक ईरानी साहसी सैनिक की दिलचस्प कहानी को मेहसूस कर सकते हैं जिसने भारतीय इतिहास के सबसे कठिन दौर में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

शीर्षक चित्र: यश मिश्रा

आप यह भी पढ़ सकते हैं
Ad Banner
close

Subscribe to our
Free Newsletter!

Join our mailing list to receive the latest news and updates from our team.

Loading