यूरोपीय यायावर और उनके सिक्के 

यूरोपीय यायावर और उनके सिक्के 

बाज़ार में लेन-देन की मुद्रा, यानि राजा के सिक्के किसी रियासत की संप्रभुता के प्रतीक होते हैं। जो भी राजा या वहां का शासक इलाक़े में अपनी सत्ता को दृढ़ता से स्थापित करना चाहता है, वह सबसे पहले अपने नाम के सिक्के चलाता है । यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है कि यूरोप से काम की तलाश में निकले इन यायावरों ने न केवल इतिहास में अपनी जगह सुनिश्चित की, बल्कि उनमें से कई ने राज भी किया और अपने नाम के सिक्के भी चलाए।

18वीं शताब्दी का अधिकांश समय उत्तरी भारत के इतिहास में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर रहा है। यह वही समय था जब सैकड़ों वर्षों से देश की सर्वोच्च सत्ता शक्ति के केंद्र रहे मुग़ल वंश का तेज़ी से पतन हो रहा था। विरोधी क्षेत्रीय शक्तियाँ सिर उठा रही थीं। देश की राजनीतिक सत्ता और आर्थिक स्रोतों की लूट के इस युग में, शक्ति परीक्षण के माध्यम से न केवल कुछ साहसिक भारतीय क्षत्रपों ने अपनी क़िस्मत आज़माई बल्कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी सहित तमाम यूरोपियन ट्रेडिंग कंपनियों ने भी अपनी हिस्सेदारी के लिए ज़ोर-आज़माइश शुरु की ।

भारत में आए इन यायावर दुस्साहसी यूरोपियन योद्धाओं के क़िस्से ‘रैग टू रिचेज़’ की तरह कम मशहूर नहीं रहे, लेकिन असली बात यह है कि वह कई जगह मज़बूती से जमे और ऐसे जमे कि उनके नाम के सिक्के चले। यह एक बड़ी बात थी। बिना किसी योजना, बिना रणनीति और बिना समुचित संसाधनों के जो लोग अपने देश को छोड़कर हज़ारों किलोमीटर दूर ,उनकी संस्कृति, आचार-विचारों और पृष्ठभूमियों से अलग, इलाक़े में दुस्साहस करने निकलें और सफल भी हो जाएँ। यह एक चमत्कारिक घटना तो थी ही।

ऐसे समय उत्तरी भारत में मराठों, सिखों और रोहिल्ला शक्तियों के उदय और उनके प्रभुत्व के साथ-साथ विदेशी व्यवसायिक व्यापारिक कंपनियों के देश पर प्रभुत्व जमाने की घटनाओं पर इतिहासकारों ने पर्याप्त दृष्टि डाली है। उनकी निगाह ने एक वर्ग-विशेष की गतिविधियों को देखने में चूक कर दी। यह वर्ग था उन यूरोपीय यायावर योद्धाओं का, जिन्होंने देश की विभिन्न जगहों और रियासतों की राजनीति को इस क़दर प्रभावित किया कि वह वहां के सेनापति अथवा जागीरदार बन बैठे। ग़ौर से देखें तो उनमें तमाम वे दुस्साहिक यायावर रहे थे जिनका इस देश के इतिहास को बदलने में कम योगदान नहीं रहा है।

आरंभिक रूप से ऐसे तीन यूरोपीय यायावर योद्धाओं के विषय में जानकारी रही है जिन्होंने इस देश के राजनीतिक पटल पर मज़बूती से अपनी जगह सुनिश्चित की हो। यह थे– जनरल बेनेट डी बॉन, जॉर्ज थॉमस और जनरल पैरोन। बाद में, जब ऐसे अन्य यायावर योद्धाओं को ढूंढने की कोशिश की गई जो भारत में सन 1784 से 1803 के बीच सक्रिय रहे थे तो जॉन विलियम हेस्सिंग का नाम सबसे पहले निकल कर सामने आया। ऐसे और भी कई यायावर थे, जिन्होंने कम या ज़्यादा रूप में भारतीय राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित किया।

जनरल बेनेट डी बॉन

पहले महादजी सिंधिया और बाद में उनके उत्तराधिकारी दौलतराव सिंधिया की सेना में महत्वपूर्ण पद सँभालने तथा अंततः बॉन के उत्तराधिकारी के रूप में सेना का प्रमुख बन जाने के बाद जनरल पेरोन को अलीगढ़ की जागीर का प्रशासनिक नियंत्रण दिया गया था। वह वहीं से अपनी सेनाओं और इलाक़े का संचालन किया करता था। सन 1780 में भारत आए इस फ्रेंच यायावर ने सबसे पहले सन 1781 में गोहद के राणा राजा की सेवा में आकर अपनी योग्यता सिद्ध की थी। उसके दो वर्ष बाद सन 1783 में उसे भरतपुर के राजा ने अपनी नौकरी में रखा। सन 1790 में महादजी सिंधिया के सेनापति जनरल डी बॉन ने जब पेरोन को अपनी सेना में तैनाती दी तो उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

यह वही पेरोन था जिसने सिंधिया और बॉन के अधीन निष्ठापूर्वक लड़ते हुए कन्नुड के युद्ध में एक हाथ गँवा दिया था. इसीलिए उसे देसी लोग ‘एकदस्त साहिब’ कहा करते थे। दौलतराव सिंधिया और उत्तर भारत के उसके गवर्नर लुकवा दादा के टकराव में, उसने समझदारी से काम लिया।वह चालाकी से सिंधिया की ओर जा मिला। यही कारण था कि तमाम वरिष्ठ लोगों के दावों की अनदेखी करते हुए सिंधिया ने पेरोन को न केवल अपनी सेना का प्रमुख बनाया, बल्कि मुग़ल बादशाह शाह आलम- द्वितीय से कहकर उसे “हफ़्त हज़ारी मनसबदार”, यानि सात हज़ार सैनिकों के कमाँडर की पदवी दिलाई। उसे एक और पदवी दी गई जिसे कहा जाता था– नसीर-उल-मुल्क इन्तिज़ाम-उद-दौला बहादुर मुज़फ़्फ़र जंग फ़िदवई-ए-शाह आलम बादशाह ग़ाज़ी. यानि मुल्क का सहायक, साम्राज्य का प्रबंधक, बहादुर, युद्धों में विजयी रहने वाला, बादशाह शाह आलम का ताबेदार योद्धा।

पेरोन ने अपनी इन पदवियों को अपनी अधिकृत मोहर पर अंकित करावा दिया था। उस काल के सिक्कों को, जिन्हें जनरल पेरोन ने चलवाया था, ‘अलीगढ़ पैसा’ कहा जाता था। उन सिक्कों को जारी किए जाने का विवरण बाक़ायदा संबंधित सरकारी अभिलेखों में दर्ज है।

जनरल पैरोन

हुआ यूँ कि सन 1801 में अवध के नवाब और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के मध्य एक अनुबंध हुआ था, जिसके अनुसार दोआब के क्षेत्र में ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा कंपनी के पक्ष में छोड़ दिया गया था। इस हिस्से से एक नए प्रांत का सृजन किया गया। इस नए प्रांत के प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए तत्कालीन समय में प्रचलित सिक्कों की एक सूची बनाई गई। इन सिक्कों की परख के लिए उनके नमूनों को कलकत्ता टकसाल में भेजा गया था। टकसाल समिति की एक रिपोर्ट में इस तथ्य का उल्लेख है। नई दिल्ली स्थित भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार में संरक्षित की गई इस रिपोर्ट में ‘सहारनपुर पेरोन रुपया’ का उल्लेख है।

इस रिपोर्ट ने प्रामाणित किया है कि ऐसे कुछ सिक्कों को पेरोन ने जारी किया था, जो सहारनपुर इलाक़े में चलते थे। तब सहारनपुर दोआब क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण जनपद मुख्यालय हुआ करता था।

निश्चित रूप से पेरोन ने ऐसा कोई स्वप्न ज़रूर देखा था कि वह अपनी एक रियासत स्थापित करेगा। उसने अलीगढ़ जनपद की कोल जगह को अपनी सैन्य राजधानी बनाया जहां उसने कैंटोनमेंट, बैरकें और तमाम सैन्य संस्थायें बनाई। उसने यहाँ सैनिकों के लिए आवश्यक जगहें बनवाईं तथा अपने लिए एक आलीशान घर भी बनवाया। उसने स्वयं को शाह आलम के साथ संबद्ध कर लिया था। ऐसा उसकी एक सील से पता चलता है। इस सील पर सन 1801-1802 के वर्ष अंकित है। बाद की सील पर फ़िदवई-ए-शाह आलम बादशाह ग़ाज़ी यानि शाह आलम योद्धा का सेवक नहीं लिखा था। अर्थ साफ़ था कि वह शहंशाह के प्रभुत्व क्षेत्र में होते हुए भी उससे अलग अपना प्रभुत्व रखने की लालसा रखता था।

इन तथ्यों से यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल नहीं है कि अलीगढ़ में बने रहने के बाद पेरोन ख़ुद को एक स्वतंत्र शासक की तरह स्थापित करने में जुट गया था। एक सँभावना यह भी रही है कि पेरोन ने शहंशाह शाह आलम -द्वितीय के साथ अपने संबंधों को भी अलग करते हुए, अलीगढ़ में अपनी एक टकसाल स्थापित कर ली हो। वह अपने नाम के सिक्कों की ढ़लाई शुरू करना चाहता होगा। यह सिक्के तांबे के थे जो सहारनपुर की टकसाल से ढ़ले थे। यह आज भी पूरी प्रामाणिकता के साथ नहीं कहा जा सकता कि उन पर जो लिखा है वह सही है। लगता यही है कि यह सिक्के पेरोन की रियासत के ही रहे होंगे।

यहाँ यह जान लेना भी आवश्यक है कि सन 1799 में जब पेरोन ने मराठों से अलग हुए उनके एक रियासतदार और सैन्य प्रमुख लुकवा दादा के विरुद्ध अभियान छेड़ा था, तो उसने सहारनपुर के गवर्नर इमाम बख़्श के दीवान शम्भूनाथ को सबक़ सिखाने की बात सोची थी, जो इस विवाद में लुकवा दादा के साथ मिल गया था। तब पेरोन ने शम्भूनाथ के सिपाहियों को बड़ी बड़ी रिश्वतें देकर अपना रास्ता साफ़ किया था। तब उन लोगों ने समझौते के अनुसार पेरोन को सहारनपुर का एक हिस्सा जायदाद के रूप में दिया था। इसलिए पेरोन का सहारनपुर से रिश्ता आसानी से सिद्ध होता है। हो सकता है कि तभी पेरोन ने टकसाल से चांदी के सिक्कों की भी ढ़लाई कराई हो।

सँभावना यह भी है कि शम्भूनाथ की सेना को घूस देने के लिए पेरोन ने अपने सिक्कों की विशेष रूप से ढ़लाई किए जाने के निर्देश दिए हों। उस अवधि में ‘सहारनपुर पेरोन रुपए’ के जो सिक्के मिले हैं वह उक्त घूस कांड यानि सन 1799 से कुल तीन वर्ष बाद की अवधि, अर्थात सन 1802 के हैं। इससे पता चलता है कि उस समय सहारनपुर में उसके नाम के सिक्कों का प्रचलन था। लेकिन सँभावनाएँ इस ओर भी इंगित करती हैं कि यह सहारनपुर की टकसाल में नहीं ढ़ले होंगे, क्योंकि तब वह ज़िला पेरोन के नियंत्रण में नहीं आता था। या तो वह सिक्के पेरोन ने अलीगढ़ की टकसाल में ढ़लवाये होगें अथवा कहीं अन्य से ढ़लवाकर मँगाए होंगे। चूँकि उन सिक्कों का उपयोग सहारनपुर क्षेत्र में स्थायी रूप से किया जाना था इसलिए यह लगता है कि उनको विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए उस पर ‘सहारनपुर’ अंकित किया गया हो। इन सिक्कों पर लिखी हुई इबारत का विवरण स्पष्ट नहीं है, परंतु इस संबंध में कोई जानकारी मिलने की सँभावनाएँ आज भी बनी हुई हैं. अगर ऐसा संभव हो पाया तो पेरोन के सिक्कों का रहस्य पूरी तरह खुल सकेगा.

भारत में सैन्य यायावरों के कार्यकलापों पर जब दृष्टि डाली जाती है तो उसमें जॉर्ज थॉमस का नाम काफ़ी ऊपर और एक सीमा तक सफल यूरोपियन योद्धाओं में लिया जाता है। जॉर्ज थॉमस मूल रूप से आयरलैंड का निवासी था और बिना किसी औपचारिक शिक्षा तथा प्रशिक्षण के भी वह इतना सफल रहा, यह जानना बहुत हैरान करता है। उसके जैसा सैन्य रणनीतिकार आसानी से नहीं मिल सकता। उसने अपनी हिम्मत और साहस से एक अलग राज्य का निर्माण कराया और ख़ुद उसका राजा बन बैठा। जॉर्ज थॉमस को हरियाणा के हिसार और रोहतक के बीच के क़स्बे हांसी में रही अपनी राजधानी के राजा के रूप में आज भी जाना जाता है.

जॉर्ज थॉमस

जॉर्ज थॉमस ने अपने संस्करणों में लिख आया था ,

“मैंने अपनी ख़ुद की टकसाल बनाई. इस टकसाल से ढ़ले सिक्कों का उपयोग सेना और राज्य मुद्रा के रूप में लेन-देन में हुआ करता था.”

चूंकि जॉर्ज थॉमस लंबे समय तक हांसी के राज्य को नहीं सँभाल पाया इसलिए बाद के वर्षों में उसके राज्य के सिक्कों का चलना कहीं प्रकाश में नहीं आया। तमाम शोध पत्रों में भी उसका उल्लेख तो अवश्य मिलता है लेकिन विवरण अनुपस्थित है। सन 1892 में कॉम्पटन नाम के एक शोधकर्ता ने एक सिक्के का स्केच बनाया जिसे जॉर्ज थॉमस की टकसाल से निकला सिक्का बताया गया।

जांच करने पर उसको सन 1799-1800 के आसपास का बताया गया है। साथ ही उसमें हांसी का उल्लेख भी हुआ है। बाद में उस विवरण का एक सिक्का ब्रिटिश म्यूज़ियम में सुशोभित किया गया। पुष्ट सूत्रों के अनुसार वह जॉर्ज थॉमस का जारी किया हुआ असली सिक्का है। सी ग्रे नाम के एक विशेषज्ञ ने साबित किया है कि इस सिक्के पर अंग्रेज़ी वर्णमाला के “टी” का प्रमुखता से उपयोग है और उसकी ढ़लाई का वर्ष नैसर्गिक रूप से उसके मूल प्रति का होने का संकेत करते हैं।

सन 1903 में नेल्सन राईट नामक एक सिक्का-संग्रहकर्ता ने ऐसा ही दूसरा सिक्का दिल्ली के बाज़ार से प्राप्त करने में सफलता पाई थी। यह सिक्का ब्रिटिश म्यूज़ियम में रखे सिक्के से भी बेहतर स्थिति का है।

मूल रूप से हालैंड में जन्मे एक यायावर योद्धा जॉन हेस्सिंग को लोग आगरा के “लाल ताजमहल” के रूप में विख़्यात उसके मक़बरे के रूप में याद करते हैं। वह महादजी सिंधिया की सेना का एक अफ़सर था लेकिन उनके सेनापति जनरल डी बॉन से उसके बेहतर संबंध न रहे तो उसने आगरा में आकर तैनात होना पसंद किया। यहाँ वह ख़ास रिसाला, यानि एक विशिष्ट सैन्य बल का प्रमुख बन गया। जब दौलतराव सिंधिया का आगरा क़िले पर क़ब्ज़ा हो गया तो उसे क़िले के प्रमुख कमाँडर के पद पर तैनात किया गया था जिस पद पर वह सन 1803 में अपनी मृत्यु तक बना रहा।

यह वह समय था जब अकबराबाद यानि आज के आगरा में उत्तर भारत की प्रमुख टकसाल हुआ करती थी। यहाँ विभिन्न मुद्राओं के सिक्के ढ़ाले जाते थे। सन 1799-1803 की अवधि में यहाँ पर जो सिक्के तैयार हुए उनमें अंग्रेज़ी के अक्षर “ जे. डब्ल्यू. एच.” का उल्लेख किया गया है जो उनके मूल रूप से जॉन हेस्सिंग के कार्यकाल और उसके नाम से जारी होने को सिद्ध करते हैं। एक बात और भी थी कि इन सिक्कों की ढ़लाई एक ख़ास अवधि के दौरान ही की गई थी। हेस्सिंग की कार्य अवधि के दौरान जारी किए गए इन सिक्कों पर कोई विशिष्ट चिन्ह नहीं देखा जा सकता है लेकिन एक मछली का निशान अवश्य दिखता है।

जॉन विलियम हेस्सिंग के सिक्कों की लिखावट की प्रतिकृति

कई सिक्के ऐसे भी मिले हैं जिनको एक अन्य यूरोपियन यायावर योद्धा मार्क फ़िलोज़ के नाम से संबद्ध किया जाता है। अभी इस संबंध में कोई पुष्टिकारक तथ्य सामने नहीं आ पाए हैं। उन सिक्कों पर फ़िनोल का नाम अंकित होना यह दर्शाता है कि इस यायावर का इन सिक्कों से अवश्य कोई वास्ता रहा होगा। यह वही यूरोपीय यायावर था जो पहले अवध के नवाब के यहाँ सेवा में रहा। बाद में उसने गोहद के राणाओं के पास काम किया. जब उसकी डी बॉन से मुलाकटात हुई तो उसे माधवजी सिंधिया के अधीन काम करने वाली एक बटालियन के प्रमुख के रूप में नौकरी मिली। धीरे-धीरे ऐसा समय आया कि वह ऐसी कुल ग्यारह बटालियनों का कमाँडर बन गया। माधव जी की मृत्यु के बाद हुए सत्ता संघर्ष में उसकी भूमिका के कारण उसे भारत छोड़कर जाना पड़ा। कोई नहीं जानता कि वह समुद्री यात्रा के दौरान ही उसका मृत्यु का शिकार बना का या अपने मुल्क जा कर।

कई विशेषज्ञों के अनुसार सन 1791 से 1794 के बीच पाए गए विशिष्ट क़िस्म के सिक्कों का फ़िलोज़ से संबंध रहा है। देखने में यह सिक्के दतिया और ओरछा के सिक्कों की पद्धति से मिलते जुलते हैं। उनमें से कुछ सिक्के सिंधिया वंश के सिक्कों की तरह के भी हैं। इन सिक्कों पर तलवार, साँप तथा भाले आदि के प्रतीक चिन्हों की विशिष्टता भी उनकी वास्तविकता की पुष्टि करती है।

दरअसल ईस्ट इंडिया कंपनी ने सिक्कों पर जो दृष्टि डाली वह काफ़ी समय बाद की घटना थी। कंपनी के लोग भारतीय टकसालों की गतिविधियों को नियंत्रित करने में अवश्य लगे थे, लेकिन आरंभ में जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने कार्यरत रही टकसालों का कार्यभार सँभाला तो उन्होंने उन दिनों प्रचलन में रहे सिक्कों में कोई ख़ास बदलाव नहीं किया। वह मुग़ल पद्धति के सिक्कों से ही काम चलाते रहे, लेकिन धीरे-धीरे में बदलाव शुरू हुआ और यह बदलाव शुरू किया हेनरी वेल्लेस्ले ने।

सन 1835 आते-आते ईस्ट इंडिया कंपनी ने सिक्कों का मानकीकरण कर दिया था। तब का एक चौथाई आना।

इस बदलाव में ईस्ट इंडिया कंपनी के बड़े अधिकारियों का नाम प्रमुख रहा है। इन लोगों ने अपनी हैसियत के हिसाब से सिक्के ढ़लवाए और उन्हें अधिकृत मुद्राओं के रूप में जारी किया। हेनरी भारत के गवर्नर जनरल-जनरल लार्ड वेल्लेस्ले के भाई थे। सन 1798 में भारत आकर वह अपने भाई के निजी सचिव के रूप में कार्यरत रहे। सन 1800 में वेल्लेस्ले ने अपने भाई को लखनऊ के नवाब से एक संधि करने के लिए भेजा। हेनरी ने यह संधि सफलतापूर्वक संपन्न कराई। इस संधि के बाद कंपनी बुंदेलखंड से लेकर दोआब के एक बड़े क्षेत्र में अपना प्रभुत्व जमाने में कामयाब हो गई। यह एक बड़ी उपलब्धि थी। इस प्रांत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी संपूर्णता कटायम की और हेनरी वेल्लेस्ले को इस इलाक़े का अध्यक्ष बना दिया गया। लेकिन ब्रिटेन में इस तैनाती का विरोध हुआ इसलिए हेनरी को सन 1803 में इस्तीफ़ा देकर इंग्लैंड वापस जाना पड़ा।

इस अवधि में कुछ सिक्के जारी किए गए जिन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी की स्वीकृति प्राप्त थी। इन सिक्कों में हेनरी वेल्लेस्ले के प्रथम अक्षर का उल्लेख किया गया है जो उन दिनों बरेली का लेफ़्टिनेंट-गवर्नर हुआ करता था। इन सिक्कों के विषय में अन्य विवरण उपलब्ध नहीं हैं।

पता चला है कि जब ब्रिटिश अफ़सरों ने बरेली की टकसाल का चार्ज लिया तो नवंबर सन 1801 में इस टकसाल को ठेके पर दे दिया गया था। इसे आत्माराम और उनके सहयोगी श्योजी मल ने सन 9001 बरेली रुपयों के राजस्व के रूप में ठेके पर लिया था। यह व्यवस्था 13 मार्च सन 1802 तक चलती रही जब तक कि अंग्रेज़ों ने इस टकसाल का प्रबंधन सीधे अपने हाथों में नहीं ले लिया. बरेली टकसाल समिति के सदस्यों की ओर से भारत सरकार के सचिव जे फ़ोनबेले के नाम एक पत्र भी भेजा था। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि इस पत्र में हेनरी वेल्लेस्ले का नहीं बल्कि हुसैन अली खां का उल्लेख किया गया था।

कैप्टेन पीयू ईस्ट इंडिया कंपनी का एक छोटा अधिकारी था जो एक समय नागपुर का सहायक पुलिस अधीक्षक रहा था। उसकी तैनाती की एक ख़ास उपलब्धि यह रही कि उसने नागपुर की टकसाल से ढ़लने वाले सिक्कों पर अपने हस्ताक्षर अंकित करवा दिए।

इसका क़िस्सा यह था कि सन 1820 में डॉक्टर गॉर्डन नाम के एक सर्जन नागपुर रेजिडेंसी में तैनात थे, जिन्हें नागपुर की टकसाल का प्रमुख बनाया गया था। ऐसा इसलिए किया गया कि इस टकसाल में चांदी के सिक्कों में मिलावट की शिकायतें मिली थीं। डॉक्टर गॉर्डन को कहा गया कि ऐसे ब्रिटिश अधिकारी की तलाश करें जो धातु की गुणवत्ता पर ध्यान रख सके। यह केवल संयोग था कि गॉर्डन की कैप्टन पीयू से भेंट हुई जिसका ऐसे किसी काम का कोई अनुभव तो नहीं था, बस इतना अवश्य था कि वह नागपुर की टकसाल के निकट निवास किया करता था। डॉ. गॉर्डन ने कैप्टन पीयू को यह ज़िम्मेदारी सौंप दी। पीयू ने गॉर्डन के अधीन अल्पकालीन स्थिति में काम किया क्योंकि बाद में उसको छत्तीसगढ़ प्रांतीय बटालियन के लिए स्थानांतरित कर दिया गया था।

इस अवधि के दौरान नागपुर की टकसाल में चांदी के सिक्के ढ़ला करते थे, जिनमें मुग़ल बादशाह अहमद शाह के “कटक’ रुपयों” का नमूना आधार का काम करता था। अहमद शाह की मृत्यु के बाद भी कटक रुपयों के सिक्कों का नागपुर टकसाल से ढ़ाला जाना जारी रहा।जब अंग्रेज़ों ने सन 1820 में नागपुर टकसाल का क़ब्ज़ा लिया था, तब डॉक्टर गॉर्डन ने इस टकसाल का एक प्रतीक चिन्ह जारी किया ।यह चांदी के सिक्के के पीछे के भाग में अंकित हुआ करता था। इस प्रतीक चिन्ह को जरीपटका या ‘द फ़्लैग स्टैंडर्ड’ कहा गया।

फ़्रेडरिक विल्सन को इतिहास में उसके प्रचलित नाम ‘राजा विल्सन’ या ‘पहाड़ी विल्सन’ के नाम से जाना जाता है। वह मूल रूप से इंग्लैंड की वेकफ़ील्ड जगह का निवासी था, जिसके बचपन के विषय में कोई नहीं जानता, लेकिन यह ज़रूर पता था कि अपने समय के युवा और किशोर युवकों की भाँति उसने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अंतर्गत नौकरी पाकर भारत आने की व्यवस्था कर ली थी। सन 1838-39 के प्रथम एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध के समय उसने इस नौकरी को धत्ता बताकर अपनी अलग व्यवस्था कर ली। वह कंपनी की बंदूक़ के साथ भाग ह गया. विल्सन पैदल ही शिवालिक पर्वतों की पहाड़ियों पर जा पहुंचा और सन 1840 में ही टेहरी गढ़वाल के एक पर्वतीय इलाक़े को अपना घर बना लिया। उसने इस जगह को मात्र इसलिए चुना था कि उसे आसानी से ढ़ूंढ़ा न जा सके।

फ़्रेडरिक विल्सन | https://raja-of-harsil.com/

अब वह गढ़वाल के इन घने जंगलों में रहने लगा और बाकी मित्रों तथा देश दुनिया से संपर्क तोड़ लिया। अपनी जीविका के रूप में उसने वहां के जंगली जानवरों का शिकार कर उनकी खालों को कोलकाता या अन्य जगहों पर भेज कर अपनी जीविका का साधन बनाया। इससे विल्सन को जो लाभ होना आरंभ हुआ वह अकल्पनीय था। धीरे-धीरे उसके पास ऐसे आदेशों की संख्या बढ़ने लगी। समय वह आया कि उसको इस काम के लिए तमाम स्थानीय लोगों को अपनी नौकरी में रखना पड़ा। अब उसने लंदन की एक कंपनी “ मैप विले ट्रेन” से भी दुर्लभ जानवरों के पंख और जानवरों की खाल बेचने का अनुबंध कर लिया।

सन 1850 में विल्सन ने टिहरी के राजा से सैकड़ों मील के जंगल की ज़मीन का पट्टा मात्र ₹400 रुपये वार्षिक शुल्क पर अपने नाम लिखवाने में सफलता प्राप्त कर ली। अब वह बड़े भूभाग के जंगल का ठेकेदार बन बैठा। उसने अपना मुख्यालय हरसिल को बनाया जो उत्तरकाशी का एक छोटा-सा गांव है।

देखते ही देखते विल्सन की शक्ति और उसका प्रभाव इतना बढ़ गया कि वह टिहरी के साम्राज्य के लिए ख़तरा बन गया। राजा भवानी शाह ने अंततः उसे दी गई जंगल की ज़मीन के पट्टे निरस्त करने का आदेश जारी कर दिया। इस नई स्थिति से परेशान विल्सन ने सन 1850 के आख़िरी दिनों में सब कुछ छोड़कर इंग्लैंड जाने का निर्णय ले लिया। वहां वह तीन साल तक रहा, परंतु उसके मन में हरसिल ही बसा था। वह वापस आया और किसी तरह से टिहरी के राजा की अनुनय कर इस जंगल की ज़मीन के पट्टे को 200 सोने की मोहरों के वार्षिक किराए पर अनुबंधित करा लिया। उसके बाद फ़्रेड्रिक विल्सन ने कभी गढ़वाल और हिमालय को नहीं छोड़ा।

विल्सन एक ऐसा व्यापारी और यायावर था जिसने अपनी बुद्धिमता से एक सुदूर देश में व्यक्तिगत रूप से बेहतरीन व्यापार की स्थापना कर दी थी. सफलता के अगले चरण में उसका अपनी मुद्रा चलाने का विचार आया. तब उसने जो सिक्के टकसाल से गढ़वाए उन्हें ‘विल्सन रुपए’ कहा जाता है।

हरसिल के राजा फ्रेडरिक विल्सन द्वारा चलाया गया सिक्का

सन 1993 के आसपास गढ़वाली गांव में इस तरह के तमाम सिक्के पाए गए थे ऐसे नमूनों की पूर्व में चल रहे विल्सन के सिक्कों से मिलान की गई और उन पर विस्तृत शोध किया गया। यद्यपि सन 1938 में जेटीएम गिब्सन के एकत्रित किए गए इन सिक्कों के नमूनों पर पहले भी शोध किया जा चुका है। दोहरे वर्गाकार पुष्प पद्धति के हीरानुमा इन सिक्कों के विषय में कई कहानियां फैली हुई हैं।

तमाम यूरोपियन यायावरों की तरह विल्सन ने भी बेशुमार दौलत इकट्ठा कर ली थी। उसके पास महलों की तरह विशाल हवेलियाँ थीं, नौकरों और काम करने वाले लोगों की एक विशाल फौज थी, अच्छे घोड़े थे, शिकारी हाथी भी थे। यह सब चीजें की वजह से वह राजा कहलाने योग्य था. इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उसने अपने सिक्के जारी किए हों। लेकिन विल्सन के सिक्के उसके संप्रभु को दिखाने का प्रयास कम, बल्कि उसके व्यवसाय के लेनदेन को सहज बनाने की व्यवस्था अधिक लगते हैं।

सन 22 जुलाई 1883 को 66 वर्ष से अधिक की आयु में उसकी मृत्यु हुई तो विल्सन को मसूरी में ही उसकी भारतीय पत्नी के बग़ल में दफनाया गया था।

इन यायावरों और व्यवसायियों ने सिक्के इकट्ठे करने का शौक़ रखने वालों के लिए नए आयाम खोल दिए। ऐसे लोगों को इन सिक्कों में बहुत विचित्रता इसलिए दिखाई दी कि वे उनकी अवधि तक के ही सिक्के रहे हैं। परंतु आज भी उनकी चर्चा भरे-पूरे सिक्कों की श्रेणी में ही की जाती है।

इन यूरोपीय यायावरों द्वारा जारी किए गए सिक्कों को अर्ध-मुग़ल काल के सिक्के कहा जाता है।

यह वह संक्रमण काल था जब न तो मुग़ल सत्ता के शासक रह गए थे और न ही ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में देश की कमान पूरी तरह आ सकी थी। इस अवधि में अराजकता का बोलबाला था और देश दिशाहीन था।

यह वह संक्रमण काल था जब ईस्ट इंडिया कंपनी की बढ़त तथा बाद में उनके प्रभुत्व स्थापित होने के साथ जो अत्याचार हुए वह तो अलग इतिहास है, लेकिन इतना अवश्य हुआ कि कंपनी ने अपनी एक सुनियोजित व्यवस्था, रणनीति और सिस्टम के तहत सभी अभिलेखों और दुर्लभ चीज़ों का रिकॉर्ड रखना आरंभ किया। उन्हीं दिनों उन्होंने भारत की टकसालों का भी विवरण तलब किया। इससे भी आश्चर्यजनक बात यह है कि उन्होंने अपने सत्ता सँभालने से भी काफ़ी पहले यानी कि फ़र्रूख़सियर के शासनकाल सन 1713 से 1719 और फिर सन 1742 में मोहम्मद शाह के उन्हें दिए गए अर्क़ट रुपए की सनद को भी सँभाल कर रखा। उसके बाद तो धीरे-धीरे ईस्ट इंडिया कंपनी ने सारी टकसालों को अपने नियंत्रण में ले लिया था।

उदाहरण के तौर पर सन 1765 में बक्सर की लड़ाई के बाद उन्होंने बंगाल की टकसाल को अपने नियंत्रण में लिया। वहां सब सिक्कों पर समरूपता का मानक और विशेष चिन्ह का अंकन सुनिश्चित किया गया। साथ ही ढ़लाई के वर्षों का भी उल्लेख किया गया। इस प्रकार बनारस टकसाल से निकले सोने और चांदी के सिक्कों पर भी स्पष्ट वर्ष का अंकन है। मुर्शिदाबाद, टकसाल और फिर फ़र्रुख़ाबाद टकसाल के साथ भी ऐसा ही किया गया। उन सालों से निकलने वाले सिक्कों पर तब तक मुग़ल बादशाह का नाम अवश्य हुआ करता था और उन सिक्कों का डिज़ाइन यूरोपीय हो गया था।

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