लोक नायक जग्गा जट्ट डाकू था, या ……

लोक नायक जग्गा जट्ट डाकू था, या ……

फ़िल्मों, कहानियों और उपन्यासों में हमेशा से देसी लोक नायकों को उनके प्रशसंकों के समक्ष ग़लत ढंग और एक तरफ़ा सोच के साथ पेश किया जाता रहा है। इसी वजह से मनसबदारों, साहूकारों, ज़ालिम हाकिमों तथा तानाशाही हुकूमत का डट कर विरोध करने वाले जगत सिंह सिद्धू उर्फ़ जग्गा जट्ट को भारतीय फिल्मों में इस तरह से पेश किया गया है जैसे जग्गा एक इंसान कि बजाये एक काल्पनिक पात्र बनकर रह गया है।  क्रांतिकारी, समाज सुधारक, बेटियों-बहनों के मान-सम्मान की रक्षा करने वाले इस योद्धा को लगातार डाकू की हैसियत से पेश किए जाने से ‘डाकू’ शब्द सुनते ही का ज़हन में ‘जग्गा डाकू’ का नाम उभरने लगता है। जबकि कभी किसी ने यह सोचने की ज़हमत नहीं की कि जिस जगत सिंह सिद्धू उर्फ़ जग्गा जट्ट के नाम के साथ ‘डाकू’ शब्द जोड़ा जा रहा है, वह असल ज़िंदगी में था कौन?

जग्गा जट्ट से संबंधित कहानी-क़िस्सों से, इस योद्धा को निजात दिलवाकर, इसे एतिहासिक और प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर सार्वजनिक करने की सोच मुझे जग्गा जट्ट की जन्म-भूमि तथा उसके परिवार के लोगों के पास ले गई।

जग्गा का जन्म सन 1892-93 में ज़िला क़सूर (पाकिस्तान) के गांव बुर्ज रण सिंह वाला में हुआ था। उनकी मां भागण और पिता मक्खण सिंह सिद्धू थे। उनके दादा रण सिंह थे । उन्होंने ही गांव बुर्ज रण सिंह वाला बसाया था। पाकिस्तान का गाँव बुर्ज रण सिंह वाला, जो पहले ज़िला लाहौर के अंतरगत हुआ करता था, मौजूदा समय में इस गांव की तहसील चूनीयां, ज़िला क़सूर तथा डाकख़ाना तलवंडी है। इस गांव में आज भी जग्गा के सगे चाचा सुलक्खन सिंह के पुत्र रह रहे हैं। देश के बँटवारे के बाद मुसलमान बन जाने पर इन्होंने अपने नाम मोहम्मद दीन, बशीर मोहम्मद तथा दीन मोहम्मद रख लिए हैं । आज भी आस-पास के गांवों में ये लोग जग्गा जट्ट के कारण ही पहचाने जाते हैं।

जिला कुसूर (पाकिस्तान) के गांव बुर्ज रण सिंह वाला में मौजूद हवेली जहां जग्गा का जन्म हुआ

जब जग्गा की उम्र बहुत कम थी तभी उनके पिता मक्खन सिंह का देहांत हो जाने के कारण उस का पालन-पोषण उसकी मां तथा चाचा रूप सिंह ने किया। जग्गा को पहलवानी तथा घुड़सवारी का शौक़ बचपन से ही था। बताते हैं कि उनकी घोड़ी ‘चिढ़ी’ इतनी तेज़-तर्रार थी कि छलांग लगाकर गांव तलवंडी की नहर पार कर जाती थी। जग्गा 18-19 वर्ष का हुआ तो गांव तलवंडी के बब्बरों की लड़की इंदर कौर से उसका विवाह हो गया। उनके घर में गुलाब कौर का जन्म हुआ । जग्गा ने, बड़े प्यार से अपनी बेटी का नाम गेबो रखा।

गुलाब कौर उर्फ रेशम कौर उर्फ गेबो

जग्गा का क़द तो दरमियाना ही था, परन्तु शरीर पूरी तरह से गठा हुआ था। उसका चोड़ा डील-डौल, दोहरे छल्ले वाली मूछें तथा अकड़ वाला स्वभाव देख कर बड़े-बड़े शूरवीर भी घबरा जाते थे । उसका रंग गेहुँआ तथा नैन-नक़्श तीखे थे। वह माया लगी दो-नुकरी पगड़ी पहनता था।

जगत सिंह सिद्धू उर्फ़ जग्गा जट्ट की ज़िंदगी की हर पल की राज़दार रही, उसकी बेटी गुलाब कौर उर्फ़ रेशम कौर उर्फ़ गेबो का परिवार मौजूदा समय भारतीय पंजाब के ज़िला मुक्तसर साहिब, हल्क़ा लंबी के गांव वणवाला अनुके में रहता है। बीबी गुलाब कौर से मेरी मुलाक़ात तब हुई जब वो अपनी उम्र के 98 वर्ष पूरे कर चुकी थीं तथा कई भयानक बीमारियों की गिरफ़्त में होने के बावजूद, अपने पिता जगत सिंह जग्गा के नाम के साथ, जुड़ चुका ‘डाकू’ शब्द हटावा कर उन्हें इंसाफ़ दिलाने के लिए जद्दो-जहद कर रही थीं। वे जग्गा जट्ट को मात्र ‘डाकू’ के रूप में प्रस्तुत करने वाले क़िस्सा-गो, लेखकों और पत्रकारों से बेहद नाराज़ थीं। उस मुलाक़ात के क़रीब दो-तीन माह बाद ही उनका देहांत हो गया। आज उनकी मृत्यु को एक वर्ष से ज़्यादा बीत चुका है, परंतु उनके साथ हुई बातचीत का एक-एक शब्द आज भी मेरे ज़हन में है।

वाक़ई, अगर जग्गा जट्ट को मात्र एक मनोरंजक क़िस्से के रूप में ही नहीं बल्कि हक़ीक़ी रूप में जानें या समझें तो बीबी गुलाब कौर की नाराज़गी पूरी तरह से जायज़ लगती है और जग्गा एक डाकू से कहीं ज़्यादा एक क्रांतिकारी तथा समाज सुधारक प्रतीत होता है।

जग्गा, दिन भर अपने दोस्तों से हँसी-मज़ाक़ करनेवाला,पहलवानी और घुड़सवारी का शौकीन एक साधारण सा ज़मींदार था। वह 65 बीघा ज़मीन का इकलौता मालिक था । सवाल यह है कि उसके सामने आखिर ऐसे कौन से हालात पैदा हुए कि उसे बंदूक़ उठानी पड़ी। और अपना घर-परिवार छोड़कर पूरे ढ़ाई माह तक भगौड़े की तरह रहना पड़ा। इस सवाल का जवाब जानने के लिये, ज़रूरत है उस दौर में झांकने की जब सिखों ने, इतिहासिक गुरूद्वारों को महंतों के कब्ज़े से आज़ाद करवाने के लिये ज़ोर-शोर से मुहिम चलाई थी।

जग्गा के साले क़ेहर सिंह के मित्र के बड़े भाई जगत सिंह, उन दिनों गुरूद्वारा कमेटी में मैनेजर थे। उन्होंने क़ेहर सिंह के डेरे पर पहुँच कर उससे तथा जग्गा से, महंत के विरूद्ध गुरूद्वारा कमेटी को सहयोग देने के लिए कहा। इस पर जग्गा तथा क़ेहर सिंह अपने साथियों सहित कमेटी वालों की मदद के लिए गुरूद्वारा साहिब में पहुँच गए। इस लड़ाई में पास के किसी अन्य गुरूद्वारे का महंत मारा गया और महंत के बहुत से साथी बुरी तरह से ज़ख्मी हो गए। इसके बाद जग्गा और उसके साथी वहां से भाग निकले । उसी दौरान जग्गा की नज़र अचानक पुलिस के डी.एस.पी. पर पड़ गई। डी.एस.पी.ओर उसके सिपाही गांव बुर्ज रण सिंह वाला से, गुरूद्वारा साहिब में माथा टेकने आई एक युवती को ज़बरदस्ती उठाकर अपनी गाड़ी में धकेल रहे थे। जग्गा ने पुलिस वालों से उस युवती को छुड़वाकर, सुरक्षित उसके घर पहुँचा दिया।

इस तरह दो-चार दिन बाद ही एक महिला के मान-सम्मान की रक्षा करते हुए जग्गा की गांव कलमोकल के जे़लर से झड़प हो गई। ग़ुस्से में आए जग्गा ने उसके खेतों ओर हवेली में आग लगा दी। जे़लर की शिकायत पर जग्गा को चार साल क़ैद की सज़ा सुनाई गई, परन्तु सज़ा पूरी होने से पहले ही वह जेल से भाग निकला। जग्गा को पता था कि पुलिस का डी.एस.पी. तथा गांव का जे़लर उसका पीछा छोड़ने वाले नहीं थे और वे हर हाल में उसे गिरफ़्तार कराने और जान से मारने के प्रयास जरूर करेंगे। इस लिए उस दिन के बाद वह अपने गांव नहीं गया और इधरउधर भागता रहा।

पुलिस ने जगह-जगह मुनादी करवाई तथा पोस्टरों के ज़रिये जग्गा को पकड़वाने या उसकी सूचना देने के बदले कई तरह के लालच दिये गये । डी.एस.पी. ने जग्गा के सारे मवेशी अपने कब्ज़े में कर लिए, उसके गांव सिद्धूपुर, अटारी कर्म सिंह तथा तलवंडी गांवों में मौजूद ज़मीन में लगाए कुंओं को मिट्टी तथा गंदगी से भरवा दिया और खेतों में उसकी खड़ी पक्की फ़सल को नष्ट कर दिया।

अब पुलिस और मनसबदारों में सीधा मुक़ाबला शुरू हो चुका था। जग्गा यह भली-भांति जानता था कि यह लड़ाई वह तलवारों और लाठियों के दम पर लंबे समय तक जारी नहीं रख सकता था । इसके लिए उसे बंदूक़ों और गोलियों की सख़्त ज़रूरत थी। यही सोचकर वह एक दिन जब घोड़े पर सवार होकर गांव पत्तोकी जा रहा था तो रास्ते में उसे साईकल पर जाता हुआ एक सिपाही दिखाई दिया, जिस के कंधे पर बंदूक टंगी हुई थी। जग्गा ने घोड़े पर बैठे-बैठे ही झपट्टा मार कर उसकी बंदूक छीन ली और पहचाने जाने के डर से उसे गोली मार कर वहीं ढेर कर दिया।

इसके बाद उसने अपनी एक टोली तैयार करके अपने बचपन के मित्रों; सोहन तेली, बेअंत सिंह उर्फ़ बंता, भोलू, बावा तथा गांव लाखूके के नाईयों के लड़के लालू को उसमें शामिल कर लिया। अपनी टोली को मज़बूत बनाने के लिए उसे और बंदूक़ों,गोलियों और पैसों की ज़रूरत थी। इसलिए वह एक दिन भेस बदलकर गांव आचल में रहनेवाले अपने मित्र आत्मा राम के घर पहुँच गया। आत्मा राम जाति का खत्री था, परन्तु दाढ़ी और केश के कारण सब उसे आत्मा सिंह कहकर ही बुलाते थे। जग्गा ने आत्मा सिंह को बताया कि वह अब इश्तिहारी डाकू बन चुका है और तानाशाह हुकूमत और ग़रीबों का ख़ून चूसने वाले ज़ालिम साहुकारों का मुक़ाबला करने के लिए उसे बंदूक़ों की ज़रूरत है। इस पर उसके मित्र ने अपनी बंदूक़ तथा गोलियों से भरे दो डिब्बे उसे दे दिये। वहां से निकलते समय जग्गा ने आत्मा सिंह की पत्नी से कहा कि जब वह गांव से बाहर निकल जाए तो वह छत पर जाकर शोर मचाना शुरू कर दे कि उसके घर में डाकू आए थे। इस से पुलिस उन पर कोई शक नहीं करेगी। आत्मा सिंह की पत्नी ने ऐसा ही किया और आत्मा सिंह ने भी थाना चुनीयां में जाकर डाके की रिपोर्ट दर्ज करवा दी। उसके बाद जग्गा तथा उसके साथियों ने आस-पास के गांवों कालूखारा, राम थम्मण, घमियारी, मंडियाली, कलमोकल तथा भाई फेरू आदि गांवों के ग़रीबों का ख़ून चूसने वाले साहुकारों की हवेलियों में कई डाके डाले और धन-दौलत लूटने के साथ-साथ उनके बही-खातों को भी आग लगा दी। उस दौरान उसके साथ रहे बड़े डाकुओं में सैदपुर, लायलपुर, साहीवाल तथा डसका के डाकू ज़्यादा प्रसिद्ध हुये और लोक-गीतों का हिस्सा बन गए। इन डाकुओं ने आस-पास के क्षेत्रों के साहुकारों, पुलिस तथा अंग्रेज़ सरकार की नींद हाराम कर दी।

जग्गा हर बार डाका डालने के बाद लूटा हुआ धन ज़रूरतमंदों में बांट देता या ग़रीब मां-बाप की बेटियों की शादी करवा देता था। उन दिनों गाँव की लड़कियों के भंडार बैठाने का बहुत रिवाज था। इस रिवाज के मुताबिक़ गाँव की युवतियों को दो-ढ़ाई सप्ताह तक रात-दिन एक ही कमरे में बैठकर चरख़ा कातना पड़ता था। वे तब तक भंडार पर बैठी रहती थीं जब तक कोई उनका भंडार नहीं छुड़ाता। जग्गा इस रिवाज को बहनों-बेटियों पर अत्याचार मानता था और जहां भी उसे पता चलता कि ल़ड़कियों का भंडार बैठाया गया है, वह वहां पहुँच कर युवतियों को रीति के मुताबिक़ समय से पहले ही बुतकियां (स्वर्ण मोहरें) तथा लड्डू देकर उनका भंडार छुड़ा देता। जिस पर युवतियां उसे हज़ार-हज़ार दुआएं देतीं थीं। जहां भी उसे रास्ते में कहीं कोई ग़रीब या बे-सहारा वृद्ध नज़र आता, वह बिना गिनती किए स्वर्ण मुद्राएं उसके हाथ में पकड़ा देता।

जग्गा की बेटी गुलाब कौर उर्फ़ गेबो, जिनका सुसराल का नाम रेशम कौर था; बताती थीं कि पुलिस से भगोड़ा घोषित होने के बाद उसके पिता मात्र एक बार ही घर आए थे। उन्होंने संदेशा भेजकर अपने मित्र क़ेहर सिंह कावां को भी बुला लिया और कहा कि वह अपने छोटे भाई मक्खन सिंह के पुत्र अवतार सिंह से गेबो का रिश्ता पक्का कर दें।

गुलाब कौर ने यह भी बताया था कि एक शाम कोई साढ़े पाँच बजे के क़रीब, सुलक्खन सिंह उसकी दादी के पास आया, जो कि रिश्ते में उसका चाचा लगता था और कहने लगा – ”बीबी जी, सिद्धूपुर में फ़क़ीर के डेरे पर बाहर से कुछ मित्र आए हैं, उनके लिए रोटियां बना दो।“ असल में डेरे पर जग्गा और उसके साथी आए हुये थे, परन्तु सुलक्खन सिंह ने जग्गा की मां को सच इसलिए नहीं बताया क्योंकि वह जानता था कि बीबी भागण यह ख़बर सुन ख़ुशी में सारे गांव को इकट्ठा कर लेगी और इस सूचना को पुलिस तक पहुँचने में ज़्यादा समय नहीं लगेगा।

बतानेवाले बताते हैं कि जग्गा की मां ने रोटियां बनानी शुरू कर दीं। उधर जग्गा का खाना बनाने वाला लालू नाई शराब का बंदोबस्त करने के लिए बाहर चला गया। थोड़ी देर बाद ही वह शराब की बोतलें लेकर लौट आया और जग्गा और सोहन तेली ने शराब पीनी शुरू कर दी, जबकि बंता थोड़ी सी शराब पीकर अपने गांव की ओर चल पड़ा। उस के जाते ही जग्गा और सोहन तेली बेसुध होकर वहीं चारपाई पर लेट गए। असल में लालू नाई ने अपने भाईयों के कहने पर जग्गा के सिर पर रखे इनाम के लालच में आकर उनकी शराब में धतुरा मिला दिया था। जब वे बेहोश हो गए तो नाई के भाई ने जग्गा की बंदूक़ से ही जग्गा पर गोलियां दाग़ दीं। जग्गा को एक गोली छाती में लगी और वह वहीं ख़त्म हो गया। उधर गोलियों की आवाज़ सुनकर बंता भी वापस डेरे की तरफ़ भागा। उस ने देखा लालू नाई ड्योढ़ी में एक ओर छिपा हुआ था और उसके भाई ने हाथ में बंदूक़ पकड़ी हुई थी। बंते ने पास पड़ा बरछा मार कर लालू का कान काट दिया और जैसे ही वह उसके भाई पर हमला करने लगा, उस ने बंते की छाती में भी गोली मार दी और उसे भी वहीं ढ़ेर कर दिया। जबकि कहीं-कहीं यह भी पढ़ने में आता है कि अंग्रेज़ी पुलिस ने जग्गा को मरवाया था और उसकी टोली को बदनाम करने के लिए, उसके मित्र लालू नाई का नाम इस क़त्ल में शामिल कर दिया गया।

कत्लकांड के चश्मदीद गवाह मलिक मोहम्मद अली

पाकिस्तान के ज़िला क़सूर के गांव सिधवानी के मलिक मोहम्मद अली जो कि क़त्ल की उक्त घटना के चश्दीद गवाह थे , का कहना है कि जग्गा का क़त्ल उनके सामने किया गया था। वे बताते हैं कि जग्गा के एक गोली छाती में और दूसरी नलों में लगी थी और वह मौक़े पर ही ढ़ेर हो गया था। कुछ देर बाद क़सूर से पुलिस वहां पहुँच गई थी और उक्त तीनों लाशों को उसने अपने कब्ज़े में ले लिया था। जग्गा की बेटी और अन्य रिश्तेदारों ने जग्गा के शव की शिनाख़्त करने के बाद सिविल अस्पताल क़सूर में पोस्ट मार्टम के लिये भेज दिया था । उसके बाद पुलिस की गाड़ी में, जग्गा का रक्त से लथ-पथ शव बुर्ज रण सिंह वाला भेज दिया गया।

वह जगह जहां जग्गा की हत्या की गई

गुलाब कौर के अनुसार जग्गा ने अंतिम समय में छोटी-छोटी डिब्बियों का त्रिजों वाला कंजर-कुर्ता (जिस को लाहौरी कुर्ता या कालर वाला कुर्ता तथा लोफ़रों वाला कुर्ता भी कहा जाता था) और चाबी के लट्ठे की चादर पहनी हुई थी। रास्ता बुहत ज़्यादा ख़राब होने के कारण, शाम को, सूर्य अस्त होने से कुछ पल पहले ही उसका शव गांव में पहुँचा। जग्गा की हवेली के सामने मौजूद मसान में, उसके अंतिम संस्कार का बंदोबस्त पहले से ही कर दिया गया था। शव को चारपाई पर रखे हुए ही उसको अंतिम स्नान कराया गया और चिता पर रख दिया गया। जग्गा की चिता को आग उसके चाचा रूप सिंह के बेटे भाग सिंह ने दी। अब उस श्मशान घाट के आधे हिस्से में गाँव के ज़मीनदार ने अपनी हवेली और शेष जग्ह पर एक स्कूल बना लिया है।

देश के बँटवारे के बाद जग्गा की पत्नी बीबी इंदर कौर को उसकी बुर्ज रण सिंह वाला की जागीर के बदले मानसा में भूमि अलाट हुई। बाद में उसे बेच कर वह गांव वणवाला अनुके आ गई। इसी गांव में सन् 1983 में उसका देहांत हुआ। उनकी बेटी गुलाब कौर भी अपने अंतिम समय तक इसी गांव में, अपने बेटे अजीत सिंह संधू और परिवार के साथ रह रही थीं।

जिला मुक्तसर साहिब के गांव वणवाला अनुके की वह हवेली जहां गुलाब कौर का देहांत हुआ

इसमें कोई शक नहीं कि अंग्रेज़ हुकूमत के लिए जग्गा जट्ट एक डाकू से ज़्यादा कुछ नहीं था। हर हुकूमत विरोध की आवाज़ बुलंद करने वालों को बाग़ी, लुटेरा, डाकू या आतंकी कहकर ही बदनाम करती है। फिर उन्हें खलनायक साबित करने के तमाम प्रयास किये जाते हैं। परन्तु यह ज़रूरी नहीं कि जो क्रांतिकारी या समाज सुधारक हुकूमत की नज़रों में डाकू या दहशतगर्द हों, उन्हें समाज भी डाकू या लुटेरे की तरह याद रखे। आज ज़रूरत इस बात की है कि उपन्यासों, कहानियों और फ़िल्मों में , अब तक नज़रअंदाज़ किए गए क्रांतिकारियों तथा लोक नायकों की बहादुरी के क़िस्सों को प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत किया जाये ताकि उन्हें इंसाफ़ मिल सके।

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