वारंगल का ऐतिहासिक क़िला

वारंगल का ऐतिहासिक क़िला

तेलंगाना राज्य के वारंगल शहर में कुछ प्रवेश-द्वारों और स्तंभों के अवशेष हैं। ऊपरी तौर पर इन्हें देखने पर ये मामूली लगते हैं। लेकिन ग़ौर से देखने पर पता चलता है, कि ये एक ऐतिहासिक और चमत्कारी धरोहर आठ सौ साल पुराने वारंगल क़िले के हिस्से हैं। ये क़िला इस क्षेत्र के समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास का गवाह है, जो सैंकड़ों साल पुराना है।

19 कि.मी. में फ़ैले इस क़िले का निर्माण मध्यकालीन राजवंश काकतीय के शासनकाल में हुआ था। काकतीय राजवंश ने 12वीं से लेकर 14वीं सदी तक शासन किया था। इनके साम्राज्य में मौजूदा समय के आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पूर्वी कर्नाटक और पश्चिमी उड़ीसा के क्षेत्र आते थे।

क़िले के अवशेष 

हालंकि इस राजवंश के बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं मिलती है, लेकिन कहा जाता है, कि वे शायद राष्ट्रकूट और पश्चिमी चालुक्य शासकों के ज़मींदार हुआ करते थे। 12वीं सदी के आरंभिक वर्षों ने उन्होंने ख़ुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। तब प्रतापरुद्र (शासनकाल लगभग 1158-1195) इस वंशका शासक हुआ करता था।

लेकिन ये राजवंश राजा गणपतिदेव (सन 1199-1262) के शासनकाल में फला-फूला और इसमें ख़ुशहाली आई। गणपतिदेव ने आंध्रा के तटीय इलाक़ों को जीता और गोदावरी तथा कृष्णा नदी के आसपास के तेलुगु भाषी इलाक़ों को एकजुट किया। गोलकुंडा की खानें काकतीय साम्राज्य के अधिकार क्षेत्र में आती थीं, जो उनके ख़ुशहाली की एक ख़ास वजह थीं। किसी समय गोलकुंडा की खानें पूरे विश्व में अपने हीरों के लिए मशहूर थीं।

यायावर मार्को पोलो ( सन 1254-1324), इसी दौरान भारत आया था। उसने भी इन हीरों का उल्लेख किया था। मार्को पोलो ने लिखा है,“जब आप मालाबार से उत्तरी दिशा में क़रीब एक हज़ार कोस दूर जाते हैं, तो वहां आपको मुतफ़िली (काकतीय) साम्राज्य मिलेगा….यहीं हीरे मिले थे…ये हीरे न सिर्फ़ बड़ी संख्या में मिले थे, बल्कि इनका आकार भी बड़ा था।”

गणपतिदेव ने वारंगल को अपनी राजधानी बनाया था और क़िले की नींव डाली थी। उसके बाद उसकी बेटी रुद्र्मादेवी ने सत्ता संभाली।

रुद्र्मादेवी के सत्ता सम्भालने के पीछे एक दिलचस्प कहानी है। गणपतिदेव की दो बेटियां थीं-रुद्रमा और गणपंबा। चूंकि उसका कोई बेटा नहीं था, इसलिए उसने अपनी बड़ी बेटी रुद्रमा को अपना उत्तराधिकारी बनाने का फ़ैसला किया। लेकिन दरबारियों ने इसका जमकर विरोध किया। जब कोई चारा नहीं बचा, तो गणपतिदेव ने एक विशेष अनुष्ठान किया, जिसमें रुद्रमा को उसका पुत्र घोषित कर दिया गया और उसका नाम रुद्रमादेव रख दिया गया। रुद्रमा पुरुषों के कपड़े पहनती थी और एक बड़ी यौद्धा भी थी। उसने देवगिरी के यादव राजा को मार भगाया था और शांति समझौता करने पर मजबूर कर दिया था। रुद्रमादेव और उसके उत्तराधिकारी और पोते प्रतापरुद्र-द्वितीय ने वारांगल क़िले में कई बदलाव करवाए।

वास्तुकला के मामले में वारंगल क़िला अनोखा है। क़िले के बीच में एक मंदिर-परिसर था, जो काकतीय राजवंश के कुल देवता स्वयंभूशिव को समर्पित था। यहां चार कीर्ति तोरणों से प्रवेश किया जा सकता था जो चार दिशाओं में थे। काकतीय कला तोरणम नाम से जाने जाने वाले ये प्रवेश-द्वार काकतीय वास्तुकला के महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। इन पर कमल की कलियों, घेरदार मालाओं, रहस्यमय पशुओं और बेलबूटेदार पूंछों वाले पक्षियों की सुंदर नक़्क़ाशी है। तेलंगाना ने इसे अपना राज्य चिन्ह बनाया है।

कला तोरण

इसके आसपास क़िले की हिफ़ाज़त के लिए तीन दीवारें (खंदक की तरह) बनाई गई थीं। लोग इस चार दीवारी के भीतर ही रहते थे।

अगर आप 13वीं सदी में वारंगल शहर में जाने की कोशिश करते, तो वह इतना आसान नहीं था। लोगों को घोड़े पर संकरे मार्गों से होकर जाना पड़ता था और ज़ाहिर है, कि इससे रफ़्तार भी कम हो जाती थी। अगर ये कोई दुश्मन होता,तो काकतीय राजा के लिए उस पर हमला करना आसान हो जाता था।

क़िले के स्तम्भ 

क़िले की एक और ख़ासियत यह भी है, कि यहां शिलाखंड को एकशिला कहा जाता है। दिलचस्प बात ये है, कि इसी शिलाखंड पर शहर का नाम भी पड़ा। वारंगल “ओरुगल्लू” शब्द से बना है, जिसका मतलब होता है एक शिलाखंड। क़िले में एक बड़ा जलाशय और कई अन्न भंडार हुआ करते थे।

स्मारक पर अलंकृत नक्काशी

लेकिन दुर्भाग्य से काकतीय के बनवाए हुए स्मारक आज बुरी हालत में हैं। मंदिर और शहर की दीवारें हमलावरों की सेनाओं ने नष्ट कर दी थीं लेकिन रुपांकन, मूर्तियां, पत्थर पर कारीगरी आदि जो कुछ भी बचा रह गया है, उसमें हमें उस समय की कुशल कारीगरी और कला कौशल के प्रति प्रेम की झलक मिलती है।

सन 1309 में अलाउद्दीन ख़िलजी के कुशल सेनापति मलिक कफ़ुर ने एक बड़ी सेना के साथ वारंगल क़िले पर हमला किया था। तब काकतीय साम्राज्य पर रुद्रमादेव के उत्तराधिकारी प्रतापरुद्र-द्वितीय का शासन था। हमले के दौरान रुद्रप्रताप और उसके लोग क़िले में छुप गए थे, लेकिन वे छह महीने के बाद भी मलिक कफ़ुर की सेना को हरा नहीं सके।

नंदी मंडप 

हालांकि क़िला मज़बूत था, लेकिन दुश्मन सेना के पास पत्थर फेंकने का यंत्र गोफन था। इससे पत्थर या अन्य कोई प्रक्षेपास्त्र क़िले की दीवारों को ढहाने के लिएआसानी से फेंके जा सकते थे। नतीजे में रुद्रप्रताप-द्वितीय को मलिक काफ़ुर के साथ समझौता करना पड़ा,जिस में अलाउद्दीन ख़िलजी को मुआवज़ा देना शामिल था। कुछ लोगों का मानना है कि युद्धविराम समझौते में मशहूर कोहिनूर हीरा भी शामिल था।

अलाउद्दीन ख़िलजी की मृत्यु के बाद रुद्रप्रताप-द्वितीय ने मुआवज़ा देना बंद कर दिया, लेकिन सन 1318 में हुए हमले के बाद, रुद्रप्रताप-द्वितीय को, अलाउद्दीन के पुत्र मुबारक शाह को मुआवज़ा देना फिर शुरू करना पड़ा। ख़िलजी की हुकूमत के समाप्त होने के बाद रुद्रप्रताप ने दिल्ली को मुआवज़ा देना बंद कर दिया। इससे नाराज़ होकर नए सुल्तान गियासुद्दीन तुग़लक़ ने हमले का फ़रमान जारी कर दिया। इस तरह इस हमले से काकतीय राजवंश का अंत हो गया । सन 1324 में उनके साम्राज्य पर दिल्ली सल्तनत का कब्ज़ा हो गया।

वारंगल में क़िले के अवशेष 

अगले कुछ वर्षों में दिल्ली के सुल्तानों ने वारंगल पर कुछ और हमले किए और उस पर पूरी तरह क़ब्ज़ाकर लिया। उन्होंने इसका नाम बदलकर सुल्तानपुर कर दिया और यहां शाही सिक्के बनाने की टकसाल खोल दी। कीर्ति तोरन के पास क़िले की दीवारों के भीतर सुल्तानों ने एक जामा मस्जिद और ख़ुश महल बनवाया जहां लोगों की फ़रियाद सुनी जाती थी।

प्रतापरुद्र-द्वितीय को गिरफ़्तार कर लिया गया लेकिन उसका भाई अन्नमादेव भागने में सफल हो गया। वह मध्य भारत में बस्तर के जंगलों में भाग गया, जो आज छत्तीसगढ़ का हिस्सा है। वह अपने साथ अन्य सामान के साथ देवी दंतेश्वरी की मूर्ति भी ले गया था। बस्तर में माता दंतेश्वरी का एक मंदिर बनाया गया जो आज भारत के 52 शक्तिपीठों में से एक है। काकतीय राजवंश के वंशजसन 1947 यानी देश को आज़ादी मिलने तक बस्तर पर शासन करते रहे।

दिल्ली के सुल्तानों के बाद मुसुनूरी नायक (शासनकाल लगभग सन 1331-1368), राचकोंडा के रचेरला नायकों (सन 1368-1424), दक्कन के बाहमनी सुल्तानों ( सन 1424-1504), भोगी कुल के शिताब ख़ान ( सन 1504 से संभवत: 1529 तक), गोलकुंडा के क़ुतुब शाहियों (सन 1579-1687) और हैदराबाद के निज़ामों ने वारंगल पर शासन किया।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने वारंगल क़िले के अवशेषों को अपनी राष्ट्रीय महत्व की धरोहर की सूची में शामिल कर लिया है। क़िले की महीन नक़्क़ाशीदार मेहराबें और स्तंभों को आज संरक्षण और बढ़ावा देने की बहुत ज़रुरत है। इसकी वास्तुकला को देखकर न सिर्फ़ लोग चकित हो जाते हैं, बल्कि ये भी भुला देते हैं, कि ये एक राजवंश और उसके साम्राज्य की ख़ुशहाली के गवाह भी हैं।

हम आपसे सुनने को उत्सुक हैं!

लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com

आप यह भी पढ़ सकते हैं
Ad Banner
close

Subscribe to our
Free Newsletter!

Join our mailing list to receive the latest news and updates from our team.

Loading