बाबूराव शेडमाके: 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम का आदिवासी हीरो

बाबूराव शेडमाके: 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम का आदिवासी हीरो

भारतीय इतिहास में सन 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम एक ऐसी घटना थी जिसने अंगरेज़ हुक़ूमत की नींव हिलाकर रख दी थी । इस संग्राम का केंद्र था मेरठ जहां दस मई सन1857 को ब्रिटिश-भारतीय सेना के भारतीय सिपाहियों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ खुलेआम बग़ावत कर दी थी।

ये बग़ावत सिर्फ़ मेरठ तक ही सीमित नहीं रही बल्कि पूरे देश में फैल गई। इस बग़ावत में शहीद हुए लोगों और नेताओं को भारत की आज़ादी का अग्रदूत माना जाता है और उनकी बहादुरी को याद किया जाता है। एक तरफ़ जहां झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, नानासाहब पेशवा, तात्या टोपे और बेगम हज़रत महल जैसे लोगों को आज भी सारा देश याद करता है वहीं कुछ ऐसे भी साहसी वीर थे जिन्हें इतिहास ने भूला दिया है ।

हमें लगता है कि बग़ावत का केंद्र उत्तर भारत था लेकिन सच्चाई ये है कि विद्रोह महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ के दूर दराज़ के आदिवासी इलाक़ों में भी पहुंच गया था। ये क़िस्सा है बाबूराव शेडमाके का, जिन्होंने 1857 में गोंड जनजाति के विद्रोह का नेतृत्व किया था। मौजूदा समय में इसे महाराष्ट्र का चंद्रपुर और गढ़चिरोली ज़िला कहा जाता है। अंगरेज़ों के शासनकाल में ये चांदा ज़िला कहलाता था। सन 1854 में अंहरेज़ों ने लॉर्ड डलहोज़ी के चूक का सिद्धान्त (‘डॉक्टरिन ऑफ़ लैप्स’) के ज़रिये इस क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया था। ‘डॉक्टरिन ऑफ़ लैप्स’ के अनुसार अगर किसी भी राज्य का कोई उत्तराधिकारी ना हो या फिर उसके राजा का कोई पुत्र न हो और उनका ख़ानदान आगे नहीं बढ़ रहा हो, तब वह राज्य ब्रिटिश शासन के अधीन आ जाता था।

अंगरेज़ों ने मार्च सन 1854 में चांदा को अपने हाथ में ले लिया और आर.एस. एलिस चांदा का पहला ज़िला कलेक्टर बन गया । उस समय ज़िले में कई ज़मींदारियां हुआ करती थीं जो राज-गोंड परिवारों के अधीन थीं। ये ज़मींदारियां 18 वीं शताब्दी में मराठाओं के आने के पहले से थीं। ज़ाहिर है, इन परिवारों ने अंगरेज़ों का विरोध किया और इसका सबसे बड़ा कारण था, उनकी ज़मीनों पर अंगरेज़ो का क़ब्ज़ा।

1870 में चंदा का पठानपुरा गेट  | (ब्रिटिश लाइब्रेरी)

ऐसी ही एक जमींदारी थी मोलमपल्ली (मौजूदा समय में गढ़चिरोली ज़िला) जिसमें 24 गांव आते थे। तक़रीबन 25 साल के बाबूराव शेडमाके मोलमपल्ली के ज़मींदार थे। उनका जन्म गढ़चिरोली ज़िले की अहेरी तहसील के किश्तपुर गांव में 12 मार्च सन 1833 को हुआ था। इसके अलावा उनके परिवार या उनके शुरुआती जीवन के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती।

मार्च सन1858 के शुरु में शेडमाके ने गोंड, माड़िया और रोहिल्ला के क़रीब 500 आदिवासियों युवाओं की फ़ौज बनाई और उन्हें लड़ना सिखाया। इस फ़ौज के दम पर ही उन्होंने चांदा ज़िले के पूरे राजगढ़ परगना पर क़ब्ज़ा कर लिया था । ये ख़बर जब चंद्रपुर पहुंची तो ज़िला कलेक्टर केप्टैन क्रिस्टन ने बग़ावत को कुचलने के लिए अंगरेज़ सेना की एक टुकड़ी भेजी ।13 मार्च सन1858 को नांदगांव-घोसरी के पास अंगरेज़ और शेडमाके की सेना के बीच युद्ध हुआ जिसमें जीत शेडमाके की सेना की हुई । उनकी सेना ने न सिर्फ़ कई अंगरेज़ सिपाहियों को मार डाला बल्कि उनके हथियारों और गोला-बारूद को भी नष्ट कर दिया।

इस बीच अडपल्ली और घोट के ज़मींदार वैंकटराव ने शेडमाके से हाथ मिला लिया और दोनों ने गोंड तथा रोहिल्ला आदिवासियों की, 1200 सिपाहियों की सेना के साथ अंगरेज़ों की सेना के ख़िलाफ़ युद्ध का ऐलान कर उनके दांत खट्टे कर दिए । इन दोनों की संयुक्त सेना ने गढ़ी-सुरला क़िले की तरफ़ कूच करके उस क्षेत्र को सीधे अपने कब्ज़े में ले लिया। जब क्रिस्टन को इस बात का पता चला तो उसने एक और टुकड़ी भेजी जिसने पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया। लेकिन इससे शेडमाके की सेना को कोई फ़र्क नहीं पड़ा। उसके सैनिकों ने अंग्रेज़ सेना पर पत्थर बरसाने शुरु कर दिए। आख़िरकार अंग्रेज़ों को वहां से भागना पड़ा । इस लड़ाई में भी काफ़ी संख्या में अंगरेज़ सिपाही मारे गए।

दो बार करारी हार का सामना करने के बाद केप्टैन क्रिस्टन ने नागपुर से लेफ़्टिनेंट जॉन नटल के नेतृत्व में फिर सेना भेजी। दोनों सेनाओं के बीच पहले 19 अप्रैल सन 1858 में सगनपुर में और फिर 27 अप्रैल सन 1858 में बामनपेट में ज़बरदस्त जंग हुई और इस बार भी जीत शेडमाके और उनकी सेना की ही हुई।

बाबूराव शेडमाके | (कलाकार - सुदर्शन बारापत्रे)

इस सफलता से उत्साहित होकर शेडमाके ने 29 अप्रैल सन 1858 की रात अहेरी ज़मींदारी में प्राणहिता नदी पर चिंचगुंडी में टेलीग्राफ़ कैंप पर हमला बोल दिया । उस क्षेत्र के आदिवासियों की नज़र में पूरे देश में फैला ये एक ऐसा यंत्र था जो उन्हें ग़ुलामी की ज़ंजीरों में बांधता था। इस हमले में टेलीग्राफ़ ऑपरेटर हॉल और गार्टलैन्ड मारे गए, लेकिन पीटर वहां से भागने में कामयाब हो गया l अहेरी के घने जंगलो से होकर पीटर, केप्टैन क्रिस्टन के पास पहुंच गया l इस हमले की आँखोदेखी जानकारी पीटर ने कैप्टेन क्रिस्टन को दी, इस पर क्रोधित होकर क्रिस्टन ने नागपुर से केप्टैन शेक्सपीअर के नेतृत्व में फौज की टुकड़ी बुलवाई l कैप्टेन शेक्सपीअर ने अपनी फौज के साथ बाबुराव-व्यंकटराव की गोंड-रोहिल्ला सेना पर 10 मई सन 1857 को घोट गांव के पास हमला बोल दिया l नतीजे में अंगरेज़ सेना को तीसरी बार शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा ।

सिडनी मॉर्निंग हेराल्ड, सोम 11 अक्टूबर 1858 पेज 3 | अमित भगत 

तीन बार लगातार शिक़स्त मिलने के बाद केप्टैन क्रिस्टन ने रणनीति में बदलाव किया । उसने अहेरी की ज़मींदार रानी लक्ष्मीबाई से कहा कि अगर उन्होंने शेडमाके को नहीं पकड़ा तो उन पर बाग़ियों को आश्रय देने और उनकी मदद करने के लिए मुक़दमा चलाया जायगा और उनकी ज़मींदारी भी छीन ली जाएगी । इस धमकी का असर पड़ा, और लक्ष्मीबाई मदद करने को राज़ी हो गईं । जुलाई सन 1858 में लक्ष्मीबाई के सिपाही भोपालपटनम में शेडमाके को पकड़ने में कामयाब हो गए लेकिन जब उसे अहेरी ले जाया जा रहा था, वह रोहिल्ला गार्ड्स की मदद से फ़रार हो गया । इसके बाद शेडमाके ने अंग्रेज़ों के नियंत्रण वाले कई इलाक़ों को लूटा।

नागपुर के आयुक्त श्री प्लोडेन का पत्र | अमित भगत 

अब तक वह अगरेज़ों के लिए एक बड़ा ख़तरा बन चुका था। लेकिन आख़िरकार लक्ष्मीबाई के सिपाहियों ने 18 सितंबर सन 1858 में शेडमाके को पकड़कर केप्टैन क्रिस्टन के हवाले कर दिया। शेडमाके को गिरफ़्तार कर चंद्रपुर लाया गया और उन पर गंभीर आरोप लगाकर मुक़दमा चला । 21 अक्टूबर सन 1858 को इस कैस में फ़ैसला सुनाया गया, वह कुछ इस प्रकार था –

१. सबूतों के आधार पर क़ैदी (बाबुराव) को अंगरेज़ हुकूमत के ख़िलाफ़ बग़ावत करने, सशस्त्र सेना खड़ी करने, 10 मई सन 1858 को घोट और 27 अप्रैल सन 1858 को बामनपेटा के गांवों में सरकारी सेना का विरोध करने, दो सरकारी सैनिकों को 12 दिन तक बंदी बनाने, उन्हें लूटने, अपने सिपाहियों से 29 अप्रैल सन1858 को चिंचगुंडी में मि.गार्टलैंड और मि.हॉल के कैंप पर हमला करवाने, उनकी लूटी हुई संपत्ति छीनने के आरोपों का दोषी पाया जाता है।

२. अदालत क़ैदी को उपरोक्त आरोपों का दोषी मानते हुए और ये जानते हए कि ज़िले में अशांति फैलाने के लिए उसके पास कोई कारण नहीं था, उसे यह सज़ा सुनाती है।

३. कि तुम्हें, बाबुराव, पूलैसुर बापु के पुत्र, को दोपहर चार बजे चंद्रपुर में जेल के सामने तब तक फ़ांसी पर लटकाया जाए जब तक कि तुम्हारा दम नहीं निकल जाता।

४. क़ैदी की सारी संपत्ति, ज़िले के उपायुक्त तथा ज़िलाधिकारी केप्टैन डब्ल्यू. एच. क्रिस्टन द्वारा ज़ब्त करने का आदेश दिया जाता है।

उसी दिन दोपहर चार बजे चंद्रपुर जेल में बाबुराव शेडमाके को फांसी पर लटका दिया गया। उनके कुछ साथियों पर भी मुक़दमा चला और कुछ को फ़ांसी और कुछ को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई।

स्थानीय लोककथा के अनुसार शेडमाके के पास जादुई शक्ति थी जिसकी वजह से जब उसे फांसी के फंदे पर लटकाया गया तो उसने चार बार फंदा तोड़ दिया । इसलिए उसे चूने में डालकर मारा गया । एक अन्य कथा के अनुसार शेडमाके को वेदना देकर चंद्रपुर जेल के बाहर पीपल के पेड़ से लटकाया गया था।

इस बीच शेडमाके का साथी वैंकटराव फ़रार हो गया और उसने बस्तर में शरण ले ली। वहां उसने अंगरेज़ों के ख़िलाफ़ फ़ौज बनाने की कोशिश की। लेकिन बस्तर के राजा ने उसे पकड़कर अंगरेज़ों के हवाले कर दिया । सन 1860 में चंद्रपुर में उस पर मुक़दमा चला। वैंकटराव की माँ नागाबाई ने अंगरेज़ों से बातचीत की और उन्हें अपनी सारी संपत्ति सौंप दी । इसी वजह से वैंकटराव को मौत की बजाय उम्रक़ैद की सज़ा मिली । इस तरह इस क्षेत्र में बग़ावत का अंत हो गया।

अहेरी की लक्ष्मीबाई को उनकी मदद के लिए इनामों से नवाज़ा गया। उन्हें वेंकटराव की अडपल्ली और घोट की ज़मींदारी दी गई जिसमें 67 गांव आते थे । केप्टैन क्रिस्टन को उनकी सेवाओं के लिए ‘कम्पेनियन ऑफ़ द बाथ’ का ख़िताब मिला।

आज चंद्रपुर में उस जगह एक छोटा सा स्मारक बना हुआ है जहां वीर बाबुराव शेडमाके को फ़ांसी दी गई थी ।

चंद्रपुर और उसके आसपास के इलाक़े में सन 1857 की बग़ावत आज भले ही देश भूल चुका हो लेकिन आदिवासी लोककथाओं और गीतों की वजह से स्थानीय लोगों के दिल में शेडमाके आज भी ज़िंदा है ।

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