जलियांवाला बाग की हिम्मतवाली बेवाएं

जलियांवाला बाग की हिम्मतवाली बेवाएं

जलियांवाला बाग का नरसंहार भारत की आज़ादी की लड़ाई में एक ऐसा अध्याय था जिसने पूरे संघर्ष की धारा बदलकर रख दी। लेकिन इस त्रासदी का मानवीय चेहरा हमेशा ढ़का रहा। इस नरसंहार की बरसी के मौके पर हम आपको दो ऐसी ग़ैरतमंद महिलाओं के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने अंग्रेज़ों द्वारा मृतक परिवारों को दी जाने वाली मुआवजे़ की राशि को ठुकरा कर न सिर्फ उस कांड में मारे गए शहीदों को ही सम्मान दिलवाया, बल्कि अमृतसर का नाम भी पूरे संसार में गर्व से ऊँचा कर दिया।

13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग कांड ने देश की आज़ादी की लड़ाई की दिशा ही बदल दी थी। बेरहमी से किये गये इस कत्लेआम में 500 से अधिक महिलाओं, पुरुषों और बच्चों को गोलियों से छलनी कर दिया गया था। ये हत्याकांड इतना विभत्स था कि इसके बाद महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन छेड़ दिया जिससे अंग्रेज़ों के खिलाफ चल रहे आज़ादी के आंदोलन को और ज्यादा तीव्रता मिली। उन्होंने घोषणा की कि ‘‘भारत के जनसमूह को सिर उठाना चाहिए और अपनी मातृ भूमि को स्वतन्त्र करवाना चाहिए।“ इसी नरसंहार के विरोध में रविन्द्र नाथ टैगोर ने ‘नाईट’ का खिताब भारत के वाईसराय को लौटाते हुए लिखा कि ”अमृतसर के बदकिस्मत लोगों को जो अमानवीय सज़ा दी गई है और जिस कठोरता से उसे लागू किया गया है, वर्तमान या अतीत की एक अथवा दो घटनाओं को छोड़ विष्व की सभ्य सरकारों के इतिहास में ऐसी बर्बरतापूर्ण कार्रवाई का कोई उदाहरण नहीं मिलता।“

जनरल डायर और उनकी बेटी एनी डायर  

इतिहास की किताबों में हमेशा बताया जाता है कि कैसे ब्रिगेडियर जनरल आर.ई.एच. डायर ने उन लोगों पर गोलियां चलवाईं जो वैसाखी के अवसर पर जलियांवाला बाग में रखे जलसे में अंग्रेज़ हुकूमत के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन करने के लिये जमा हुए थे। इतिहास में दर्ज है कि कैसे जनरल डायर और उसके सिपाहियों ने बाग के प्रमुख रास्ते को बंद कर गोलियां चलाईं ताकि कोई भी व्यक्ति बाहर न निकल सके। इतिहास में यह भी दर्ज है कि कैसे सिपाही तब तक गोलियां द़ागते रहे जब तक कि उनकी गोलियां खत्म नहीं हो गईं। इस अंधाधुंध गोलीबारी के बाद वे जलियांवाला बाग में लाशों के ढेर और सैंकड़ों ज़ख्मियों ंको तड़पता छोड़ कर चले गये।

लेकिन हमें इतिहास की किताबें ये नहीं बताती हैं कि कैसे इस नरसंहार के बाद लोग कितनी गहरी तकलीफों से गुज़रे और कैसे अद्भुत साहस एवं हिम्मत का परिचय दिया। ये कहानी ऐसी दो महिलाओं की है जिन्होंने इस नरसंहार के बाद न सिर्फ भारत की अंग्रेज़ सरकार का विरोध किया; बल्कि मृतकों के परिवारों को दी जाने वाली मुआवज़े की राशि को लेने से भी इंकार कर दिया था।

ये कहानी अतर कौर और रतन देई की है जिनके पति इस नरसंहार में मारे गए थे। ये महिलाएं न सिर्फ अपने पतियों की बल्कि उस कत्लेआम में मारे गये तमाम लोगों की शहादत और सम्मान की लड़ाई में अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ खड़ी हो गईं थीं।

खून में सना मुआवज़ा

जलियांवाला बाग कांड की वजह से अंग्रेज़ सरकार की चारों तरफ से आलोचना हो रही थी। न सिर्फ भारत के बुद्धिजीवी और सियासतदान बल्कि ब्रिटेन में भी लोग इस घटना की आलोचना कर रहे थे। स्थिति को सुधारने को लिये अंग्रेज़ हुकूमत ने नरसंहार में मारे गए लोगों के परिजनों को मुआवज़ा देने की पेशकश की।

प्रसिद्ध इतिहासकार विश्वनाथ दत्ता ने अपनी किताब “जलियांवाला बाग मैसेकर” (1969 और 2000 में दोबारा प्रकाशित) में लिखा है कि 15 जून 1921 को नरसंहार में मारे गए लोगों के अलावा उन लोगों को भी मुआवज़ा देने की कार्रवाई शुरु हुई जिनका इस घटना में कोई भी आर्थिक नुकसान हुआ था।

इस नरसंहार में शहीद होने वालों में से मात्र छज्जू मल की विधवा रतन देई तथा भागमल भाटिया की विधवा अत्तर कौर ने मुआवज़े की 25 हज़ार रूपए की राषि को यह कहकर ठुकरा दिया था कि वे हत्यारों से अपने पतियों के कत्ल का मुआवज़ा हरगिज़ नहीं लेंगी।

पी.एन.चोपड़ा ने अपनी पुस्तक ”हू’ज हू आॅफ इंडियन मार्टियर्स (1969)“ में जलियांवाला बाग नरसंहार के बारे में लिखा है कि जब जनरल डायर के सिपाही कत्लेआम करके चले गये तब अतर कौर, जो उस समय गर्भवती थीं, हिम्मत करके अपने पड़ोसी संत मिश्रा के साथ अपने पति का शव लेने के लिये बाग में पहुंचीं। उनका परिवार उन दिनों अमृतसर के मोहन नगर में रहता था। उनका लकड़ियां बेचने का कारोबार (आरा) था लेकिन अतर कौर के बड़े बेटे मोहन लाल इस घटना के समय बहुत छोटे थे; जिस कारण वे इस कारोबार को जारी नहीं रख सके। जिस के चलते जल्दी बाद इस परिवार पर आर्थिक संकट छा गए। अत्तर कौर के पास परिवार चलाने के लिए घर के काम करने के अलावा कोई चारा नहीं था।

नरसंहार के सात माह बाद 20 नवम्बर 1919 को पैदा हुए उनके सुपुत्र सोहन लाल भारती को तत्कालीन राष्ट्रपति राजिन्द्र प्रसाद ने ‘अभिमन्यू’ कहकर नवाज़ा, परन्तु आज़ाद भारत की किसी सरकार ने उन्हें कोई आर्थिक सहायता नहीं दी। अतर कौर का 31 जनवरी 1964 में निधन हो गया।

अतर कौर

सोहन लाल भारती ने बाद में सुल्तानविंड रोड के पास बिजली के सामान की दुकान शुरू की, जो वर्ष 1984 में पंजाब में आतंकवाद के दौरान हुए दंगों में जल गई। जिस कारण वे तथा उनका परिवार एक बार फिर से आर्थिक तंगी का षिकार हो गए। अपनी माँ की तरह ही गैरतमंद सोहन लाल नहीं चाहते थे कि वे या उनकी औलाद अमृतसर में रहते हुए कोई निचले स्तर का काम या मजदूरी करें। इस लिए रोज़ी-रोटी की तालाष में वे परिवार सहित दिल्ली चले गये। किन्तु वहां भी इस आर्थिक तंगी ने उनका पीछा नहीं छोड़ा और अंतः दिल्ली में सोहन लाल भारती का 13 जुलाई, 2011 को 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया। आज उनके पुत्र रवि भारती दिल्ली के उत्तम नगर क्षेत्र में रहते हैं।

वह रात जिसकी सुबह नहीं…

अतर कौर की तरह रतन देई की भी दुखद कहानी है जो उन्होंने जलियांवाला बाग नैशनल मेमोरियल ट्रस्ट को सुनाई थी। उन्होंने ट्रस्ट को बताया था-”मैं जलियांवाला बाग के समीप अपने घर में थी, जब मैंने गोली चलने की आवाज़ सुनी। मैं तुरंत उठ बैठी क्योंकि मुझे चिंता थी कि मेरे पति बाग में गए हुए थे। मैं उसी वक्त मुहल्ले की दो औरतों को लेकर बाग में चली गई। वहां मुझे लाषों के ढेर के पास से गुज़रते हुए मेरे पति की लाष मिल गई। कुछ समय बाद लाला सुंदर दास (पड़ोसी) के दोनों सुपुत्र वहां पहुँच गए। मैंने उन्हें कहा कि एक चारपाई ले आओ और मेरे पति की लाष घर ले चलते हैं। वे दोनों घर चले गए और मैंने उन दोनों औरतों को भी घर भेज दिया। मैं वहां खड़ी होकर प्रतीक्षा करती रही और रोती रही। रात के आठ बज चुके थे तथा कफ्र्यू आॅर्डर के कारण कोई भी घर से नहीं निकल सकता था।”

रतन देवी

साढ़े आठ बजे के लगभग वहां पर एक सिख युवक आया | दावा किया जाता है कि वह युवक शहीद उधम सिंह था, हालांकि इसकी अधिकारित तौर पर पुष्टि नहीं की जा सकी है। उधम सिंह ने 1934 में माइकल ओ-ड्वायर को मार दिया था।माइकल रौलट एक्ट और जलियांवाला बाग हत्याकांड के दौरान पंजाब के उपराज्यपाल थे। हत्या का मतलब 1919 में पंजाब में हुए विभिन्न अत्याचारों का बदला लेना था।

“मैंने उस सिख युवक से प्रार्थना की कि वह मेरे पति की लाष को सूखे स्थान पर पहुँचाने में मेरी सहायता करे क्योंकि उस स्थान पर खून ही खून था। उसने लाष को सिर की ओर से पकड़ा तथा मैंने टांगों की ओर से और उसे सूखे स्थान पर ले जाकर एक लकड़ी के तख्ते पर लिटा दिया। उसके वहां से चले जाने के बाद मैं रात दस बजे तक प्रतीक्षा करती रही लेकिन वहां कोई नहीं आया। बाग में उस वक्त मेरे, लाषों और ज़ख्मियों के अतिरिक्त कोई भी नहीं था। अंतः मैं उठी और कटड़ा आहलूवालिया की ओर चल पड़ी। मैं अभी कुछ ही दूर गई थी कि साथ के घर की खिड़की में बैठे एक पुरूष ने मुझ से कहा कि इतनी रात को तुम कफ्र्यू में कहां जा रही हो। मैंने उसे कहा कि मुझे कुछ आदमी चाहिएं जो मेरे पति के मृत शरीर को घर पहुँचाने में मेरी मदद करें। उसने जवाब दिया कि मैं स्वयं एक घायल के पास बैठा हूँ तथा इस समय 10 बजे से भी ऊपर का समय हो रहा है, तुम्हारी सहायता कौन करेगा?’ उनके बाद मैंने कुछ और लोगों से भी हाथ जोड़कर साथ चलने के लिए कहा, परन्तु किसी ने मदद नहीं की। मैं बाग में वापिस चली गई तथा अपने पति की लाष के पास आकर बैठ गई। मेरे पति की लाष के पास ही तीन व्यक्ति अपने जख़्मों की पीड़ा से तड़प रहे थे और एक भैंस भी गोली लगने के कारण बहुत कष्ट में थी। एक 12 वर्ष के बालक ने पीडा से तड़पते हुए मेरे आगे प्रार्थना की कि मैं वहां से न जाऊँ। मैंने उसे समझाया कि मैं अपने पति की लाष यहां छोड़कर कहीं नहीं जाने वाली। मैंने उससे पूछा कि अगर तुम्हें सर्दी लग रही है तो मैं तुम पर कपड़ा डाल देती हँु, परंतु उसने पानी मांगा जोे उस स्थान पर मिलना संभव नहीं था।

अपने परिजनों की लाशें उठाते लोग 

हर घंटे के पष्चात् घंटा घर (श्री दरबार साहिब के बाहर मौजूद पुराना रेड् टावर) का टल नियमतः बजता रहा। रात 12 बजे सुल्तानविंड गांव का एक व्यक्ति, जो कि दीवार में फंसा हुआ था, ने मुझे आवाज़ दी कि मेरी टाँग उठाकर मुझे बाहर निकाल दो। मैं उठी और रक्त से भरे उसके कपड़े को पकड़कर उसकी टांग ऊपर कर दी। सुबह करीब 6 बजे हमारे पड़ोसी लाला सुन्दर दास, उसके पुत्र तथा मोहल्ले के कुछ आदमी एक चारपाई ले आए। बाग में अन्य लोग भी अपने संबंधियों को ढूंढ रहे थे। उस रात जो मेरे साथ घटा, उसका वर्णन करना बहुत मुष्किल है। कोई पीठ के बल लेटा हुआ था तो कोई मुँह के बल। वहां कई मासूम बच्चे भी थे ….।” रतन कौर के कोई बच्चे नहीं थे, और शहर में उनके मृत पति के अलावा परिवार का कोई सदस्य नहीं था इसलिए हमें उनके बाद के जीवन और मृत्यु के बारे में कोई जानकारी नहीं है।

एक विरोधी अंग्रेज़ महिला

दरअसल मुआवज़ा लेने से इंकार करने वाली सिर्फ अतर कौर और रतन देई ही नहीं थीं। जलियांवाला बाग नरसंहार का विरोध करने वाली एक और अंग्रेज़ युवती भी थी। ये युवती न तो भारतीय थी और न ही उसका कोई सगा-संबंधी इस नरसंहार में मारा गया था। वह अंग्रेज़ लड़की चर्च आॅफ इंग्लैंड जनाना मिषनरी सोसाईटी के लिए काम करने वाली मिस मार्षिला शेरवुड थी, जिसने अंग्रेज़ सरकार द्वारा दी गई 50 हज़ार रूपये की मुआवज़े की राषि लेने से साफ मना कर दिया था।

मार्षिला शेरवुड

शेरवुड को जलियांवाला बाग नरसंहार से तीन दिन पहले 10 अप्रैल को लोहगढ़ के अंदर आबादी कूचा कोढ़ियां में प्रदर्षनकारियों की भीड़ में शामिल तीन युवकों द्वारा उस वक्त तक ठुड्डों और लाठियों से पीटा जाता रहा, जब तक उन्हें यह विष्वास नहीं हो गया कि वह मर चुकी है। शेरवुड जो कि अमृतसर सिटी मिषन स्कूल की मैनेजर भी थी; उस दिन जब अपने साईकिल पर घर को लौट रही थी तो वह अचानक भीड़ के काबू आ गई। हालांकि उसने भीड़ के कब्जे में से निकलकर आबादी कूचा कोढ़ियां और उसकी एक गली कुरेषां के बहुत से घरों के दरवाज़ों पर दस्तक देकर मदद की गुहार लगाई, परन्तु भीड़ के आक्रोष से डर के मारे किसी ने उसे शरण न दी।

मार्शिला शेरवुड के मिशन हाउस के बहार जमा कैरिज

अंतः भीड़ के चले जाने के बाद इसी क्षेत्र में रहने वाले एक भारतीय हिन्दू डाॅक्टर जिसका पुत्र मिस शेरवुड के स्कूल में ही पढ़ता था, ने मलहम-पट्टी करके उसे उसके घर पहुँचाया। बुरी तरह जख़्मी होने के बावजूद शेरवुड ने भारतीय जनता पर किये गये जुल्मों के लिये ब्रिटिश सरकार की जमकर आलोचना की।

अतर कौर, रतन देई और मार्षिला शेरवुड का विरोध न तो नाटकीय था और न ही वे किसी का ज्यादा ध्यान ही अपनी तरफ खींच पाईं थीं। इन महिलाओं की स्थिति किसी किताब में दर्ज ‘फुट नोट्स’ की तरह है क्योंकि वह घटना एक बड़े कत्लेआम की वजह से जानी जाती है। उसमें अंग्रेज़ शासकों के खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत दिखानेवाली इन महिलायों का कहीं जिक्र नहीं है।

हम आपसे सुनने को उत्सुक हैं!

लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com

आप यह भी पढ़ सकते हैं
Ad Banner
close

Subscribe to our
Free Newsletter!

Join our mailing list to receive the latest news and updates from our team.

Loading