दादा हरीर नी वाव और मध्यकालीन गुजरात  

दादा हरीर नी वाव और मध्यकालीन गुजरात  

दादा हरीर नी वाव (बावड़ी) अहमदाबाद में एक ख़ास तरह का सीढ़ियों वाला कुआं है जो मध्यकालीन गुजरात की साझा संस्कृति का गवाह है। वाव को अक़्सर एक हिंदु स्मारक समझ लिया जाता है क्योंकि इसके साथ हरी नाम जुड़ा हुआ है जो विष्णु के कई नामों में से एक नाम है। लेकिन सच्चाई ये है कि इसका निर्माण गुजरात के सुल्तानों के समय सुल्तान के हरम की देख रेख करने वाले ने करवाया था।

दादा हरीर नी  वाव अहमदाबाद से 6 कि.मी. दूर अश्‍वारा में स्थित है।  गुजरात के इंडो-इस्लामिक वास्तुकला के विकास में इसका बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें हिंदू और इस्लामिक, दोनों की वास्तु और कलात्मक परंपराओं की झलक दिखती है।

इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का नमूना   | लिव हिस्ट्री इंडिया 

सुल्तान महमूद बेगड़ा के शासनकाल (सन 1453-1511) में सुल्तान के हरम की देख रेख करने वाली बाई हरीर सुल्तानी ने इस बावड़ी का निर्माण करवाया था। इस्लामिक शासन में अमूमन शाही हरम की देख रेख का काम ‘ख़्वाजा सरा’ यानी किन्नरों को सौंपा जाता था इसलिए माना जाता है कि बाई हरीर भी किन्नर ही रही होगी ।

आठ कोने वाली मध्य शाफ़्ट | विकिमीडिया कॉमन्स 

इस परिसर में एक मस्जिद, एक मक़बरा और वाव या बावड़ी है। ये बावड़ी पांच मंज़िला है और इसकी गहराई 32 फ़ुट है। ये बावड़ी बालुआ-पत्थर की बनी है और इसके निर्माण में सोलंकी वास्तुकला का काफ़ी प्रभाव है। बावड़ी की आठ कोने वाली मध्य शाफ़्ट अपने आप में काफ़ी गहरी है। सतह पर बावड़ी 190 फुट लंबी और 40 फुट चौड़ी है । बावड़ी पूर्व-पश्चिम अक्ष रेखा पर आधारित है और इसका प्रवेश पूर्व से है और शाफ़्ट पश्चिम दिशा की तरफ़ है।

गलियारी  | विकिमीडिया कॉमन्स 

गुजरात में मद्यकालीन समय में बावड़ी सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग हुआ करती थीं।

वे न सिर्फ़ पानी का स्रोत थीं बल्कि स्थानीय लोगों और मेहमानों की आरामगाह और मिलने जुलने की जगह भी हुआ करती थीं। दादा हरीर नी वाव की सीढ़ियां एक स्तर से दूसरे स्तर तक  जाती हैं और हर स्तर पर गलियारे, गैलरी, बरामदे और मंडप हैं जिनका इस्तेमाल मेहमान आराम करने या सभा करने के लिए कर सकते थे। बावड़ी की शाफ़्ट में भी घुमाओदार सीड़ियां हैं जो अलग अलग स्तर पर खुलती हैं।

दादा हरीर नी मस्जिद | लिव हिस्ट्री इंडिया 

बावड़ी के एकदम सामने दादा हरीर नी मस्जिद और बाई हरीर सुल्तानी का मक़बरा भी है। बावड़ी और मस्जिद उन्होंने ही बनवाई थी। मक़बरा और मस्जिद हालांकि बहुत बड़े नहीं हैं लेकिन इनकी बनावट बहुत सुंदर है। दोनों के गुम्बद इस्लामिक वास्तुकला के नमूने हैं, जो सुंदर नक़्क़ाशी वाली मीनारों पर खड़े हैं। इनमें झरोखे और छतें भी हैं। यहां आम हिन्दू प्रतीक चिंह भी दिखाई देते हैं लेकिन इस्लामी परम्पराओं को देखते हुए इनमें इंसानों और जानवरों की आकृतियां नहीं बनाई गई है। हालांकि हाथी जैसे पशुओं का कुछ चित्रण मिलता है। ये चित्रण बावड़ी के ऊपरी स्तरों पर ही दिखाई देता है ।

बावड़ी की पुरानी तस्वीर  | विकिमीडिया कॉमन्स 

‘स्टेप्स टू वॉटर: द एंशियंट स्टेपवेल्स ऑफ़ इंडिया’ किताब में कला इतिहासकार मिलो बीच और मॉर्ना लिविग्स्टोन बताते हैं कि महमूद बेगड़ा के शासनकाल में सन 1498 और सन 1503 के बीच चार बावड़ियां बनवाईं गईं थीं। इनमें  हिंदु और इस्लामिक वास्तुशिल्प और आदर्शों का प्रभावशाली मिश्रण दिखाई दोता है। इन बावड़ियों के नाम हैं दादा हरीर नी वाव, अडालज नी वाव, अंबरपुर वाव और सांप वाव। कला इतिहासकारों का कहना है कि इनमें से दादा हरीर अपने गुंबदनुमा मंडपों की वजह से इस्लामिक वास्तुकला के सबसे ज़्यादा नज़दीक है।

संस्कृत शिलालेख | विकिमीडिया कॉमन्स 

बाव़ड़ी परिसर में तीन शिलालेख हैं: एक बावड़ी की दीवार पर संस्कृत में है और दो मस्जिद की दीवारों पर हैं, जो अरबी भाषा में हैं। इनसे ही हमें बावड़ी के निर्माण के बारे में ज़्यादातर जानकारियां मिलती हैं। शिला-लेख में नाम, तारीख़ और उन लोगों के ओहदों के बारे में भी पता चलता है जो निर्माण से जुड़े हुए थे। इसके अलावा इससे उस समय के सामाजिकऔर सांस्कृतिक तानेबाने तथा  राजनीतिक हालात की भी जानकारी मिलती है।

पुणे में दक्कन कॉलेज के प्रो. एम.ए. चुग़ताई ने अहमदाबाद शहर के कई इस्लामिक स्मारकों के शिलालेखों का अर्थ खोजा  है और उनका अनुवाद भी किया है। इनमें दादा हरीर नी वाव के अभिलेख भी शामिल हैं। प्रो. चुग़ताई अहमदाबाद में मिले शिलालेखों के बारे में एक दिलचस्प जानकारी देते है। वह यह कि इन अभिलेखों में सन 1035 से लेकर सन 1785 तक की अवधि दर्ज है। प्रो. चुग़ताई के अनुसार भारत में किसी भी ऐतिहासिक शहर में मिले शिलालेखों में इतनी लंबी काल-अवधि दर्ज नहीं है।

माना जाता है कि दादा हरीर नी वाव के निर्माण और शिलालेख एक ही समय के हैं।

शिला-लेख में निर्माण का वर्ष सन 1500 लिखा हुआ है और  इनसे ये भी पता चलता है कि निर्माम कार्य पर तीन लाख, नब्बे हज़ार मोहम्मदी सिक्के यानी तीन लाख रुपये ख़र्च हुए थे। अभिलेख में  वाव, मस्जिद और मक़बरे के साथ-साथ बाई हरीर द्वारा बनवाए गए एक बाग़ीचे का भी ज़िक्र है लेकिन आज इसका कोई वजूद बाक़ी नही है। इन अभिलेखों की वजह से ही हम निर्माण की तफ़सील और बाई हरीर सुल्तानी के बारे में जानते हैं।

वाव पर सुन्दर नक्काशी  | लिव हिस्ट्री इंडिया 

दोनों शिलालेख 15 वीं शताब्दी के हैं लेकिन दोनों पर लिखी जानकारियां एक जैसी हैं। इनमें बाई हरीर और महमूद बेगड़ा को बावड़ी बनवावाने के लिए धन्यवाद भी दिया गया है। संस्कृत भाषा में लिखे शिलालेख के अनुसार बावड़ी का निर्माण मलिक बिहामाड नाम के व्यक्ति की देख रेख में हुआ और मिस्त्री का नाम गजाधर वैश्य बताया गया है। दिलचस्प बात ये है कि एक तरफ़ जहां अरबी में लिखे शिलालेखों में अल्लाह का शुक्रिया अदा किया है, वहीं संस्कृत में लिखे शिलालेखों में वरुण जैसे भगवानों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की गई है। ये उस समय की, गुजरात की साझा संस्कृति को दर्शाता है।

आज दादा हरी नी वाव वीरान है और यहां बहुत कम लोग आते जाते हैं। पास में ही माता भवानी नी वाव है। माना जाता है कि इसका निर्माण 11वीं सदी में हुआ था। इस वाव ने आज एक मंदिर का रुप ले लिया है, ऐसा रुप जो दादा हरीर नी वाव से एकदम भिन्न है।

दादा हरीर नी वाव के सुनहरे दिन भले ही ढ़ल चुके हों लेकिन ये आज भी कई कहानियां बयां करती महसूस होती है।

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