भारत की राजनीतिक राजधानी दिल्ली और आर्थिक राजधानी मुंबई की जब हम बात करते हैं तो हमारे ज़हन में दिल्ली का इंडिया गेट और मुंबई का गेटवे ऑफ़ इंडिया ज़रूर आता है। दोनों ही गेट यात्रियों के घूमने की सूचि में अपनी जगह बनाती है और क्यों नही हो? दोनों ही गेट अद्भुत वास्तुकला के साथ साथ ऐतिहासिक महत्त्व रखते हैं। आज हम आपको इन दोनों गेटों के कहानी बताते हैं।
1- गेटवे आफ़ इंडिया, मुम्बई
सन 1911 में ब्रिटेन के राजा किंग जार्ज-पंचम और उनकी पत्नी क्वीन मेरी मुम्बई के अपोलो बंदर पर उतरे थे और कार्डबोर्ड यानी गत्ते की बनी मेहराब से होकर गुज़रे थे जो भारत में उनके स्वागत के लिये बनायी गयी थी। जी..कार्डबोर्ड की मेहराब! शाही जोड़े को मुम्बई से, सन 1911 में दिल्ली दरबार जाना था। जहां किंग जार्ज-पंचम की भारत के किंग-एम्परर की हैसियत से ताजपोशी होनी थी। यह भी इत्तिफ़ाक़ था कि तभी राजधानी भी कलकत्ता से दिल्ली लाई जा रही थी।
जिस जगह पर कार्डबोर्ड की अस्थाई मेहराब बनाई गई थी, यह वही जगह है जहां आज गेटवे आफ़ इंडिया बना हुआ है।
19वीं सदी में अरब महासागर के किनारे पर स्थित मुम्बई का अपोलो बंदर, यात्रियों और व्यापारिक सामान के आनेजाने का सबसे महत्वपूर्ण घाट हुआ करता था। भारत में आनेवाले यात्रियों के लिये सबसे महत्वपूर्ण केंद्र यही था। शायद इसीलिये ब्रिटिश हुकुमत ने इस जगह गेटवे बनाने का फ़ैसला किया जो न सिर्फ़ शाही यात्रा की बल्कि भारत पर उनके प्रभाव की निशानी भी थी।
गेटवे आफ़ इंडिया की आधार शिला 31 मार्च सन 1913 को, बाम्बे के गवर्नर सर जार्ज सिडेनहैम क्लार्क ने रखी थी। सन 1914 में इसकी डिज़ायन बनाने की ज़िम्मेदारी स्काटलैंड के मशहूर आर्किटैक्ट जार्ज विटेट को सौंपी गई थी। विटेट को छत्रपति शिवाजी महाराज वास्तु संग्रहलय( प्रिंस वाल्स म्युज़ियम ) की डिज़ायन बनाने के लिये भी जाना जाता है। लेकिन समुद्र का पानी हटाकर ज़मीन बनाने और समुद्र के पानी में दीवार खड़ी करने की वजह से रुकावट पैदा हो गई थी । इसी वजह से सन 1919 तक गेटवे के निर्माण का काम रुका रहा। गेटवे का निर्माण सन 1920 में शुरू हुआ। इस इमारत की कुल ऊंचाई 85 फ़ुट है। यह इमारत पीले रंग की खरोड़ी बासाल्ट से बनाई है जो आसपास की खदानों से लाई गई थी।
इसमें तीन मेहराबें हैँ और बीचवाली मेहराब के ऊपर चार बुर्ज बने हैं जो ख़ूबसूरत शिल्पकारी से सजे हुय़े हैं जिन्हें देखकर लगता है कि यह रोम की विजयीय मेहराबों से प्रभावित हैं। उदाहरण के लिये पेरिस का आर्क द् ट्रौम्फ़ डु कारांसेल। इस पर स्थानीय़ प्रभाव भी दिखाई देता है। गेटवे की मेहराबों पर 15वीं सदी में बनी अहमदाबाद (गुजरात) की जामा मस्जिद का असर भी देखा जा सकता है।और पढ़ें
2- इंडिया गेट – दिल्ली
भारत की राजधानी दिल्ली के राजपथ को कई लोग राष्ट्रीय सड़क मानते हैं। यह वही जगह है जहां हर साल 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस की परेड होती है। इसकी पश्चिम दिशा में राष्ट्रपति भवन और पूर्वी दिशा में इंडिया गेट है। यह दोनों इमारते अंगरेज़ों की बनवाई हुई हैं। राष्ट्रपति भवन अंगरेज़ों के लिये, दक्षिण एशिया में उनकी शक्ति का प्रतीक था,वहीं इंडिया गेट ब्रिटिश सरकार से वफ़ादारी और उसके ख़ातिर किये गये बलिदान का प्रतीक था, जिसकी वजह से ब्रिटिश साम्राज्य बना।
इंडिया गेट उन 70 हज़ार ब्रिटिश भारतीय सैनिकों की याद में बनवाया गया था जिन्होंने सन 1914 और सन 1921 के बीच अपनी जानें गंवाईं थीं पहले प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) में और उसके बाद तृतीय एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध (1919) में। इंडिया गेट के अभिलेख में लिखा है,“भारतीय सेना के उन मृतकों के सम्मान में जो फ़्रांस और फ़्लांडर्, मेसोपोटामिया और फ़ारस, ईस्ट अफ़्रिका गल्लीपोली, नज़दीक या दूर कहीं पूर्व में शहीद हुये। और उन शहीदों की याद में भी जिनके नाम यहां दर्ज किये गये हैं,जो भारत या उत्तर-पश्चिम सीमा पर, तृतीय अफ़ग़ान युद्ध में मारे गये थे।”
इंडिया गेट की बुनियाद 10 फ़रवरी 1921 को रखी गई थी। इस वसर पर वायसराय लार्ड चेम्सफ़ोर्ड ने कहा था, “इस तरह बहादुरी की प्रभावशाली व्यक्तिगत कहानियां देश के इतिहास में हमेशा ज़िन्दा रहेंगी। जाने और अनजाने बहादुरों को श्रृद्धांजलि के रूप में बनाया गया यह स्मार्क आनेवाली पीढ़ियों को महनत की आदत डालने , वैसे ही धैर्य को क़ायम रखने और उतने ही साहस को बनाये रखने की प्ररणा देता रहेगा।”
इस गेट की डिज़ाइन भी, नई दिल्ली को रूप देने वाले शिल्पकार एडविन लुटियंस ने बनायी थी। जैसे जैसे इंडिया गेट शक्ल ले रहा था, उसी के साथ साथ राजधानी नई दिल्ली भी बनती जा रही थी। यह मुग़लों की राजधानी शाहजहांबाद से सिर्फ़ दस किलोमीटर दूर , एकदम नये सिरे से बन रही थी। ख़ुशवंत सिंह ने लिखा है कि पत्थर काटनेवाले यानी संगतराश आगरा और दिल्ली के ही थे और वह मुग़लों के क़िले बनाने वाले कारीगरों के ख़ानदान के ही थे। नई दिल्ली के निमार्ण में तीस हज़ार मज़दूर लगाये गये थे। उनमें से ज़्यादातर राजस्थान से थे जिन्हें बागरी के नाम से जाना जाता है। उन लोगों के रहने के लिये निर्माण कार्य के आसपास ही अस्थाई प्रबंध किये गये थे। और पढ़ें
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