क्या आप जानते हैं कि गुजरात की एक महिला ने संयुक्त राष्ट्र को मानवाधिकार के सार्वभौमिक घोषणा-पत्र की शुरुआती पंक्तियों में पुरुष और महिलाओं को समान अधिकार देने की बात शामिल करने के लिये बाध्य कर दिया था? 1947-48 में शिक्षाविद, स्वतंत्रता सैनानी और महिला अधिकारों की वकालत करने वाली हंसा मेहता ने अनुच्छेद एक की इस इबारत ‘सभी पुरुष स्वतंत्र और एक समान पैदा होते हैं…’ को बदलावकर ‘सभी इंसान स्वतंत्र और एक समान पैदा होता है…’ करवा दिया था।
ये एक बड़ी जीत थी लेकिन ये हंसा मेहता की पहली जीत नहीं थी। इसके बाद उन्होंने अपने जीवन में सफ़लताओं के कई ताज पहने। स्वतंत्रता सैनानी और महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करने के अलावा वह सामाजिक कार्यकर्ता, लेखिका और सांसद भी थीं। हंसा मेहता सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा-पत्र का मसौदा तैयार करने वाली संयुक्त राष्ट्र की समिति की सदस्य भी रहीं।
14 अगस्त सन 1947 को जब रात के बारह बजे भारत अंग्रेज़ों से आज़ाद हुआ तब वह जवाहरलाल नेहरु और राजेंद्र प्रसाद के साथ शामिल होनेवाले लोगों में मौजूद थीं। जैसे ही रात के बारह बजे राष्ट्रपति ने आज़ादी की प्रतिज्ञा ली और भारत की महिलाओं की तरफ़ से हंसा ने राष्ट्रपति को राष्ट्रीय ध्वज सौपा और कहा-“हमने केसरिया रंग पहना है, हमने संघर्ष किया है और देश की आज़ादी के लिये हम लड़े हैं और बलिदान किया है। आज हमने अपना उद्देश्य प्राप्त कर लिया। हमारी आज़ादी के प्रतीक इस चिन्ह (राष्ट्रीय ध्वज) को देते हुए हम एक बार फिर देश के प्रति हमारी सेवा की पेशकश करते हैं।”
भारत की पहली 389 सदस्यीय संविधान सभा में 15 महिलाएं थीं जिनमें हंसा भी एक थीं। उन्होंने भारत का संविधान बनाने में मदद की जिसका पालन आज भी सरकार और देश करता है। लेकिन शिक्षाविद के रुप में हंसा की भूमिका बहुत बड़ी थी और उन्होंने सभी महिलाओं के लिये समानता और अवसरों के अधिकारों को लेकर संघर्ष किया। ये संघर्ष उन्होंने ऐसे समय किया था जब ज़्यादातर महिलाएं अपने घर की चार दिवारों में बंद रहती थीं।
हंसा का जन्म तीन जुलाई सन 1897 में गुजरात के सूरत में एक शिक्षित और धनवान परिवार में हुआ था। उनके पिता मनुभाई मेहता बड़ौदा कॉलेज में दर्शन शास्त्र के प्रोफ़ेसर थे जो बाद में बड़ौदा और फिर बीकानेर के दीवान बने। उनके दादा नंदशंकर मेहता समाज सुधारक थे और उन्होंने पहला गुराती उपन्यास “करण घेलो” लिखा था।
हंसा को बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई के लिये प्रोत्साहित किया गया था । कॉलेज के बाद वह इंग्लैंड चली गईं जहां उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से पत्रकारिता की पढ़ाई की । एक स्व-नियुक्त मिशन के तहत वह छात्रों के आदान-प्रदान कार्यक्रम में अमेरिका गईं। हंसा उन अमेरिकी कॉलेजों के साथ तारतम्य बैठाना चाहती थीं जो भारतीय महिलाओं को पूरी स्कॉलरशिप देने के इच्छुक थे। वह दरअसल अमेरिकी महिला कॉलेजों की तर्ज़ पर भारत में भी महिला कॉलेज की स्थापना के लिये सुझाव चाहती थीं इसीलिए अमेरिकी शैक्षिक तथा सामाजिक संस्थानों और उनकी प्रणाली को समझना चाहती थीं।
इंग्लैंड में उनकी मुलाक़ात भारतीय स्वतंत्रता सैनानी सरोजनी नायडू और राजकुमारी अमृत कौर से हुई। वह इन दोनों के क़रीब आ गईं। नायडू और अमृत कौर से हुई मुलाक़ात ने उनके भीतर राष्ट्रवाद की भावना जगाई। सरोजनी नायडू ने हंसा का परिचय महात्मा गांधी से भी करवाया। सन 1922 में देशद्रोह के आरोप में जब गांधीजी को गिरफ़्तार कर अहमदाबाद की साबरमती जेल में बंद कर दिया गया तब सरोजनी नायडू बॉम्बे की कुछ महिलाओं के साथ उनसे मिलने गईं थीं। तब हंसा लंदन से वापस आकर बॉम्बे में शिक्षा के क्षेत्र में काम करने लगी थीं। साबरमती जेल में हंसा ने गांधीजी को पहली बार क़रीब से देखा ता और वह उन्हें देखकर विस्मित हो गईं जिसका ज़िक्र उन्होंने बाद में अपनी किताब द इंडियन वूमन में किया।
महिला शिक्षा के क्षेत्र में उनके किए गए कामों की वजह से उन्हें बॉम्बे नगरपालिका के स्कूलों की समिति के बोर्ड में नियुक्त कर दिया गया।
सन 1928 में हंसा ने जीवराज मेहता से विवाह किया जो पेशे से डॉक्टर थे। वह बड़ौदा रियासत के मुख्य चिकित्सा अधिकारी रह चुके थे और विवाह के समय वह बॉम्बे के प्रतिष्ठित किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल के डीन थे। शुरु में उनके सम्बंधों को लेकर परिवार और समुदाय में हंगामा मचा। हंसा नागर ब्राह्मण थीं जबकि जीवराज वैष्य मेहता थे। जीवराज की जाति हंसा की जाति से नीची मानी जाती थी। बड़ौदा के प्रगतिशील महाराजा और जीवराज के सहयोगी सायाजीराव गायकवाड-तृतीय ने हंसा के पिता को विवाह तथा दंपत्ति को आशीर्वाद देने के लिये राज़ी करने में मदद की।
उस समय तक स्वतंत्रता संग्राम ज़ोर पकड़ने लगा था। नागरिक अवज्ञा आंदोलन अपने चरम पर था और इसमें मेहता दम्पत्ति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गांधीजी की सलाह पर एक मई सन 1930 को हंसा ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लडाई लड़ने के लिये गठित महिलाओं के ग्रुप देश सेविका संघ के पहले बैच का सत्याग्रह मुहिम में नेतृत्व किया। सत्याग्रह मुहिम के तहत बॉम्बे के भुलेश्वर इलाक़े में विदेशी कपड़ो और शराब की दुकानों के सामने धरना दिया गया। जल्द ही हंसा ने और ज़िम्मेदारियां ले ली और कई विरोध-प्रदर्शन आयोजित किये। इसके बाद उन्हें बॉम्बे कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बना दिया गया। कमेटी के सदस्य उन्हें प्यार से बॉम्बे की तानाशाह कहते थे। शहर में वह एक ताक़त बन गईं थीं और परिणाम स्वरुप उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। ये उनकी पहली गिरफ़्तारी थी। उन्हें तीन महीने की जेल हो गई। पांच मार्च सन 1931 में गांधी-इर्विन संधि के बाद उन्हें रिहा किया गया।
सन 1932 में हंसा को हरिजन सेवक संघ का उपाध्यक्ष बना दिया गया। ये संघ हरिजनों के साथ समानता के बरताव, मंदिरों, स्कूलों और अन्य सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में उनके प्रवेश के अधिकारों को लेकर गांधी और भीमराव अंबेडकर के बीच सुलह कराने की कोशिश कर रहा था।
1936-37 के शीतकाल में अंग्रेज़ शासित भारत में प्रातीय चुनाव हुए। हंसा बॉम्बे विधान परिषद के लिये चुनाव लड़ी और जीतीं। उन्हें शिक्षा एवं स्वास्थ विभाग का संसदीय सचिव नियुक्त किया गया। उनके दिशा-निर्देश में विभाग ने कई बदलाव किये। विभाग ने पेशेवर (वोकेशनल), व्यावसायिक और तकनीकी स्कूल खोले। विभाग को ये भी लगा कि माध्यमिक स्कूल शिक्षा का नियंत्रण विश्वविद्यालय के हाथों से लेकर राज्य के हाथों में देने का समय आ गया है। इस फ़ैसले के तहत सेकेंड्री स्कूल सर्टिफ़िकेट एक्ज़ामिनेशन बोर्ड (SSCEB) का गठन हुआ। ये व्यवस्था आज भी मौजूद है।
इस दौरान हंसा एक समिति से दूसरी समिति में जाती रहीं, निर्देश देती रहीं और समितियां गठित करती रहीं। सन 1946 में वह ऑल इंडिया वीमेन कांफ़्रेंस (AIWC) की अध्यक्ष बन गईं। इसका गठन महिलाओं तथा बच्चों में शिक्षा और समाज कल्याण को प्रोत्साहित करने के लिये सन 1927 में हुआ था। हैदराबाद में AIWC के 18वें सत्र में अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने महिलाओं के अधिकारों और कर्तव्यों का एक चार्टर बनाने का प्रस्ताव रखा और इसका मसौदा भी तैयार किया। उन्होंने महिलाओं के लिये समान व्यवहार, समान नागरिक तथा शिक्षा अधिकारों की मांग की। चार्टर में समान वेतन, संपत्ति के समान बंटवारे और विवाह क़ानूनों को समान रुप से लागू करने की बात कही गई।
सन 1947 में हंसा को संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग में बतौर भारतीय प्रतिनिधि नियुक्त किया गया और उन्हें बॉम्बे से संविधान सभा में भी नियुक्त किया गया। वह बॉम्बे विधान परिषद की सदस्य थी।
हंसा के लिये संविधान सभा में नियुक्ति एक ऐसा मंच साबित हुआ जहां से उन्होंने संविधान में बदलाव की पुरज़ोर वकालत की। मौलिक अधिकारों पर गठित उप-समिति के सदस्य के रुप में हंसा ने बी.आर.अंबेडकर, मीनू मसानी और अम़ृत कौर के साथ मिलकर समान नागरिक क़ानून के पक्ष में बहस की। हंसा का मानना था कि बहु-धर्मों के परे भारतीयों की एक पहचान के लिये समान नागरिक क़ानून बनाना सरकार की ज़िम्मेदारी है। उनका ये भी मानना था कि ‘एक राष्ट्र’ के लिये ये ज़रुरी है। लेकिन ये प्रस्ताव ख़ारिज हो गया। हंसा और अन्य सदस्यों ने ये कहते हुए अपना विरोध दर्ज करवाया कि ‘भारतीयता की तरफ़ बढ़ने से रोकने वाले कारणों में एक कारण धर्म आधारित पर्सनल लॉ हैं जिसकी वजह से देश जीवन के कई पहलुओं में बंद ख़ानों में बंट जाता है।’
आज़ादी के बाद सन 1948 में संसद में हिंदू कोड बिल, जिसका उद्देश्य हिंदू पर्सनल लॉ को संहिताबद्ध करना और इसमें सुधार करना था, पर चर्चा हुई। हंसा ने तर्क दिया कि पिता की संपत्ति में बेटी और बेटे को समान हिस्सा मिलना चाहिये। उन्होंने इस बिल अथवा विधेयक में महीलाओं को भी तलाक़ देने के अधिकार को भी शामिल करने की मांग। अपनी किताब इंडियन में उन्होंने लिखा है कि वह चाहती हैं कि सरकार भारत में महिलाओं को एक ऐसे स्वतंत्र व्यक्ति के रुप में देखे जिसके अधिकार पति या परिवार पर निर्भर न हों।
सन 1949 में वह नव गठित बड़ौदा विश्वविद्यालय की उप-कुलपति बन गईं। भारत में ऐसा पहली बार हुआ था कि जब एक महिला किसी ऐसे विश्वविद्यालय की उप-कुलपति बनी जो सिर्फ़ महिलाओं के लिए नहीं था। उन्होंने तीन नये विभाग शुरू किए जिनमें होम साइंस, सोशल वर्क और फ़ाइन आर्ट्स शामिल थे। विश्वविद्यालय ने परीक्षा के तरीक़ों को समझने के लिये शिक्षकों को विदेश भेजा और छात्र संघ के लिये भी कमरा मुहैया करवाया। उस समय किसी और विश्वविद्यालय में इस तरह की गतिविधियां नहीं होती थीं।
शिक्षा को लेकर हंसा का नज़रिया न सिर्फ़ अनुकरणीय था बल्कि अपने समय से बहुत आगे का भी था। उदाहरण के लिये यूनिवर्सिटी एजुकेशन कमिशन (1948-49) का मानना था कि हालांकि पुरुष और महिलाएं दोनों ही शैक्षिक कार्य में समान रुप से योग्य हैं लेकिन ज़रुरी नहीं है कि उनकी शिक्षा भी समान हो। कमिशन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा-“हर देश में, भले ही वहां महिलाओं को कितनी भी आज़ादी मिल चुकी हो, पति और पत्नी की अलग अलग भूमिका होती है। अमूमन पुरुष पैसा कमाता है और महिला घर संभालती है। घर को व्यवस्थित रखना और साफ सुंदर बनाये रखना महिलाओं के लिये एक बड़ी कला है। इस कला को अचानक यूं ही हासिल नही किया जा सकता। बिना शिक्षा के इस कला को हासिल करना कई महिलाओं के लिये असंभव होगा।” इसे राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद ने 1962 में चुनौती दी जिसकी अध्यक्षता हंसा मेहता कर रही थी। परिषद ने स्पष्ट किया कि महिला कौशल जैसी कोई चीज़ नही है जो पुरुष और महिला पाठ्यक्रम के बीच अंतर पैदा कर सके।
अपनी व्यस्त दिनचर्या के बावजूद हंसा ने लेखन के लिये भी समय निकाला। उन्होंने धर्म से लेकर महिलाओं के अधिकारों जैसे अनेक विषयों पर 15 किताबें लिखीं। इनमें गुजराती में रामकथा (1993) और अंग्रेज़ी में द वूमन अंडर द हिंदू लॉ ऑफ़ मैरिज एंड सक्सेशन (1944) तथा द इंडियन वूमन (1981) किताबें शामिल हैं। उन्होंने लोकप्रिय अंग्रेज़ी साहित्य का भी गुजराती भाषा में अनुवाद किया जैसे शैक्सपियर का नाटक हैमलेट और जोनाथन स्विफ़्ट की व्यंग रचना गुलीवर्स ट्रैवल। गुलीवर्स ट्रैवल का शीर्षक उन्होंने “गोलीबार नी मुसाफरी” (1931) रखा।
सन 1959 में विशिष्ट सेवाओं के लिये हंसा मेहता को पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। अगले साल उनके पति जीवराज मेहता गुजरात के पहले मुख्यमंत्री बने। सन 1964 में वह लंदन में भारत के उच्चायुक्त नियुक्त हुए और जवाहरलाल नेहरु ने ख़ासतौर पर हंसा को उनके साथ जाने को कहा। लंदन में तीन साल रहने के दौरान हंसा ने भारतीय प्रवासियों की स्थिति सुधारने की दिशा में काम किया। वह रेशियल रिलेशन कमेटी की सदस्य भी बनीं।
चार अप्रैल सन 1995 को हंसा मेहता का निधन हो गया था। लेकिन मृत्यु के पहले तक वह देश की सेवा करती रहीं। संभ्रांत परिवार में पैदा हुई हंसा उन्हें मिले दुर्लभ अवसरों की क़द्र जानती थीं और उन्होंने ऐसे लोगों के लिये विश्व में जगह बनाई जो मामूली परिवार से आते थे।
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