सौरव कुमार राय
वर्तमान में कोरोना महामारी ने मानव इतिहास की कुछ भयावह महामारियों के प्रति सहज ही ध्यान आकर्षित किया है। ऐसे में जिस एक महामारी की सबसे ज़्यादा चर्चा हो रही है वो है सन 1918-20 में आयी स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा महामारी । आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि कोरोना आने के पहले तक, मानव इतिहास की इस अत्यंत भयावह महामारी को लगभग भुला दिया गया था। यहाँ तक कि इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों में भी स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा का थोड़ा बहुत ही उल्लेख मिलता है। भारतीय संदर्भ में इस महामारी का भुला दिया जाना और भी चकित करता है क्योंकि इस महामारी से मरने वालों की सबसे अधिक संख्या भारत में ही थी। एक अनुमान के अनुसार इस महामारी से ब्रिटिश इंडिया में लगभग डेढ़ करोड़ मौतें हुईं थीं। अगर इसमें देशी रियासतों में होने वाली मौतों को भी जोड़ दिया जाये तो यह संख्या दो करोड़ के आस-पास पहुँच जायेगी।
स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा का उद्गम
अपने नाम से अलग, इस महामारी की शुरुआत स्पेन से न होकर अमेरिका से हुई थी। इससे संबंधित पहला केस जनवरी सन 1918 में, अमेरिका के कंसास के कैंप फ़िएस्टन के एक अस्पताल में दर्ज किया गया था। धीरे-धीरे फ़्रांस, जर्मनी तथा ब्रिटेन में भी इस बीमारी की ख़बरें मिलने लगीं। हालाँकि, प्रथम विश्व युद्ध का समय होने के कारण लोगों तथा सैनिकों के मनोबल को बनाये रखने के लिये इन देशों की सरकारों ने इन शुरुआती रिपोर्टों को मीडिया में आने से रोक दिया। चूँकि स्पेन प्रथम विश्व युद्ध में शामिल नहीं था इसलिये वहाँ की मीडिया ने स्पेन में इस बीमारी से जुड़े मामलों की विस्तृत रिपोर्टिंग की गई। इससे अन्य देश को यह लगा कि इस महामारी की शुरुआत स्पेन से हुई है। यही कारण था कि इस वैश्विक महामारी को ‘स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा’ अथवा ‘स्पेनिश फ़्लू’ नाम दिया गया।
इसी दौर में यह अफ़वाह भी फैल गयी थी कि स्पेनिश फ़्लू के विषाणु का संवर्धन जर्मनी ने, स्पेन के मैड्रिड शहर की एक प्रयोगशाला में, अमेरिकी सैनिकों को संक्रमित करने के उद्देश्य से किया था। वह इसे एक जैविक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना चाहता था ताकि अमेरिका अपने मित्र राष्ट्रों की मदद न कर पाए। परन्तु वैज्ञानिकों की लापरवाही और आपसी अनबन की वजह से यह विषाणु मैड्रिड शहर में ही फूट पड़ा तथा धीरे-धीरे समूचे विश्व में फैल गया। इस अफ़वाह का असर कुछ ऐसे हुआ था कि रामेश्वरी नेहरू ने अपनी पत्रिका स्त्री दर्पण (जनवरी सन 1919) के संपादकीय ‘श्लेष्माज्वर, समरज्वर, इन्फ्लूएंज़ा’ में भी इस महामारी के जन्म की यही कहानी प्रस्तुत की। दरअसल किसी भी महामारी के दौरान अफ़वाहों का बाज़ार काफ़ी गर्म रहता है। कुछ ऐसी ही अफ़वाहें कोरोना महामारी के दौरान भी देखी जा सकती हैं, जहाँ कोरोना विषाणु को चीन के आविष्कृत जैविक हथियार के तौर पर देखा जा रहा है जो भूलवश वुहान स्थित प्रयोगशाला से फूट कर चीन में ही फैल गया।
भारत में स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा का क़हर
भारत में स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा का आगमन प्रथम विश्व युद्ध में शामिल भारतीय सैनिकों की वापसी से होता है। भारत में इस महामारी से जुड़ा पहला केस बम्बई में जून सन 1918 में रिपोर्ट किया गया। उसके बाद कुछ ही महीनों में यह महामारी पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैल गयी। सितम्बर सन 1918 में बम्बई प्रेसीडेंसी में, अक्टूबर सन 1918 में मद्रास प्रेसीडेंसी में तथा नवंबर सन 1918 में कलकत्ता प्रेसीडेंसी में इस महामारी से मरने वालों की मृत्यु दर अपने शिखर पर पहुँच गयी थी। मरने वालों में सबसे ज़्यादा तादाद 20-40 आयु वर्ग वाले युवाओं की थी। इससे अधिकांश परिवारों के समक्ष रोज़ी रोटी तथा बच्चों के लालन-पालन जैसी गंभीर समस्याएं खड़ी हो गयीं थीं। यह ग़ौरतलब है कि सन 1872 में भारत में जब से जनगणना की शुरुआत हुई, 1911 से 1921 का दशक एकमात्र दशक है जब दो जनगणनाओं के बीच जनसंख्या की कमी देखी गई। इसकी एक बड़ी वजह सन 1918 में आयी स्पेनिश फ़्लू महामारी थी।
इस बीमारी से संक्रमित होने वालों में कई नामी-गिरामी भारतीयों के परिवार भी शामिल थे। महात्मा गांधी की सबसे बड़ी बहू गुलाब गांधी की इस महामारी में असमय मृत्यु हो गयी। सीमान्त गांधी के नाम से मशहूर ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान की पत्नी भी इस महामारी के दौरान दुनिया से बिदा हो गयीं। हिंदी भाषा के अग्रिम कवियों में से एक सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का तो क़रीब-क़रीब आधा परिवार, जिसमें उनकी पत्नी और बेटी भी शामिल थीं, इस महामारी के दौरान साफ़ हो गया। भारत में स्पेनिश फ़्लू महामारी के इस अप्रत्याशित क़हर का एक बड़ा कारण ब्रटिश शासन का, इसकी रोकथाम के लिये अपनाया गया ढ़ुल-मुल रवैया था। स्पेनिश फ़्लू से पहले ब्यूबॉनिक प्लेग महामारी (1896-1910) के दौरान ब्रिटिश शासन ने जो क़दम उठाये थे, उससे भारतीय जनमानस में गहरा असंतोष भर गया था जिसकी व्याख्या डेविड अर्नाल्ड अपनी किताब कोलोनाइजिंग दी बॉडी (1993) में की है। प्लेग की रोकथाम के लिये औपनिवेशिक उपायों की वजह से जगह-जगह दंगे भड़क उठे थे। अर्नाल्ड के अनुसार उन उपायों को भारतीय ‘देह पर औपनिवेशिक दस्तदराज़ी’ के तौर पर देखा गया। इस कारण स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा के दौरान ब्रिटिश भारतीय शासन ने उदासीनता का रवैया अपनाना बेहतर समझा जिससे असंख्य लोग मृत्यु के मुँह में असमय ही समा गए। निस्संदेह औपनिवेशिक भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य की लचर व्यवस्था ने भी स्थिति को और गंभीर बना दिया।
हिंदी साहित्य के आईने में स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा
इतिहासकार विनय लाल ‘कारवां’ के माध्यम से दिए गए अपने एक हालिया वक्तव्य (9 जुलाई 2020) में कहते हैं कि भारत में स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा महामारी को लेकर तत्कालीन औपनिवेशिक शासन की उदासीनता का आलम कुछ यह था कि जांच कमीशनों के लिए मशहूर ब्रिटिश भारतीय शासन ने स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा के प्रसार एवं उससे होने वाली असंख्य मौतों की जांच व अध्ययन के लिए एक भी उच्च स्तरीय जांच कमीशन की स्थापना नहीं की। इसी कारण इस महामारी के अध्ययन के लिए बहुत ही कम सरकारी दतावेज़ उपलब्ध हैं। हालाँकि हिंदी साहित्यकारों ने स्पेनिश फ़्लू महामारी का अत्यंत मर्मस्पर्शी चित्रण किया है।
इस दौरान मौत का जो तांडव फैला था उसका वर्णन करते हुए हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ अपने जीवन संस्मरण कुल्ली भाट (1938) में लिखते हैं, ‘अख़बारों से मृत्यु की भयंकरता मालूम हो चुकी थी। गंगा के किनारे पर सब कुछ प्रत्यक्ष था । गंगा में जैसे लाशों का ही प्रवाह हो।’ निराला के अनुसार ‘इस समय का अनुभव जीवन का विचित्र अनुभव था। देखते-देखते घर साफ़ हो गए। जितने उपार्जन और काम करने वाले आदमी थे साफ़ हो गए। चार बड़के दादा के, दो मेरे। दादा के सबसे बड़े लड़के की उम्र 15 साल मेरी सबसे छोटी लड़की साल भर की। चारों ओर अंधेरा नज़र आता था।’
कुछ इसी प्रकार पांडेय बेचैन शर्मा ‘उग्र’ अपनी कहानी ‘वीभत्स’ में लिखते हैं, ‘देश के अधिकांश भागों में युद्ध-ज्वर या इन्फ्लूएंज़ा का नाशकारी आतंक छाया हुआ था। एक-एक शहर में रोज़ शत-शत प्राणी मर रहे थे। एक-एक गाँव में अनेक-अनेक। …… मारे डर के कोई बाज़ार नहीं जाता था, क्योंकि लोगों ने सुन रखा था कि वह रोग छूत से फैलता है।’ ऐसे में इस रोग के मुर्दे को कंधा देने वाला भी कोई नहीं बचा। जिसने भी इस रोग के मुर्दे को कंधा दिया, मसान से लौटते ही वह खुद ज्वर से पीड़ित हो जाता।“ भय के इस माहौल में कहानी का केंद्रीय पात्र सुमेरा लालचवश इन्फ्लूएंज़ा के मृतकों की लाशों को नदी ले जाकर बहाने का काम करने लगा जिसके बदले में उसे अच्छी-ख़ासी मज़दूरी मिल जाती थी। हालाँकि अंत में सुमेरा भी इस महामारी की भेंट चढ़ जाता है।
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार यशपाल अपने उपन्यास मेरी तेरी उसकी बात (1974) में इन्फ्लूएंज़ा महामारी के उद्गम एवं भारत में उसकी विभीषिका का उल्लेख कुछ इन शब्दों में करते हैं : ‘युद्ध के समय लगभग चार वर्ष तक भयंकर नरसंहार में लाशों को ठिकाने न लगा सकने और युद्ध के दूसरे मारक प्रभावों के परिणाम में यूरोप से एक नयी महामारी का विकराल झंझा उठकर संसार भर में फैल गया। महामारी की आँधी इस देश में भी आयी। उस बीमारी के नाम, निदान और उपचार डॉक्टरों, हकीमों, वैद्यों के लिए अजाने। नयी बीमारी के साथ नया नाम आया : फ़लंजा (इन्फ्लूएंजा)। गला-नाक जकड़कर खाँसी और ज़बरदस्त बुख़ार। बिरले ही इस बीमारी से अछूते रहे। बीमारी ने दस को छुआ तो दो-तीन को समेट भी लिया। सड़कों-बाज़ारों में दिन-रात, किसी भी समय अर्थियाँ, जनाज़े दिखाई दे जाते। गली-मोहल्ले के लोग एक अर्थी मरघट या क़ब्रिस्तान पहुँचाकर लौटते तो दो शव और देखते। आतंक का सबसे बड़ा कारण था कि डॉक्टर-वैद्य रोग से बचाव का कोई उपाय न बता सके। बीमारी के भय से कई मुहल्ले, गलियाँ, गाँव उजड़ गए। रोग की छूत हवा में समा गयी थी। छुतही हवा के श्वास से बचने का उपाय बताया जाता…. नाक के सामने निरन्तर यूकलिप्टिस के तेल की फुरेहरी, दालचीनी और बड़ी इलायची का काढ़ा।’
उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि भारत में स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा महामारी के प्रकोप के अध्ययन में हिंदी साहित्य की एक बड़ी भूमिका हो सकती है जिसपर काम होना अभी बाक़ी है।
उस महामारी को भुलाये जाने के कारण
आख़िर वे क्या वजहें रही होंगी जिसके चलते ऐसे भयावह प्रकोप के बावजूद स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा की महामारी न सिर्फ़ विश्व बल्कि भारतीय जनस्मृति से लगभग भुला दी गयी। इस संदर्भ में अल्फ़्रेड क्रॉस्बी (2003) ने इसे ‘दी फ़ारगटन पैनडेमिक’ की संज्ञा दी है। इस महामारी को भुलाये जाने के कारकों का सिर्फ़ अनुमान भर लगाया जा सकता है। दरअसल सन 1910 के दशक का उत्तरार्ध ‘महान विभीषिकाओं’ का दौर था। प्रथम विश्वयुद्ध में असंख्य सैनिक और लोग मौत का शिकार हो गए। इसके अतिरिक्त सन 1918 के सूखे और अकाल ने भारतीय उपमहाद्वीप की स्थिति को और भी गंभीर बना दिया था। चारों तरफ़ मौत का ही मंज़र था। ऐसे में संभवतः महामारी से होने वाली मौतें ‘सामान्य’ घटना प्रतीत होने लगीं।
भारतीय संदर्भ में इस महामारी को भुलाये जाने का एक कारण तत्कालीन राजनीतिक अस्थिरता भी हो सकती है। ग़ौरतलब है कि सन 1918-20 का समय भारतीय राजनीति में रौलेट सत्याग्रह, खिलाफ़त आंदोलन, जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड और उससे उपजे राजनीतिक रोष तथा असहयोग आंदोलन का दौर था। पूरा देश इन ज्वलंत राजनीतिक मुद्दों से जूझ रहा था। ऐसे में महामारी का मुद्दा पीछे छूट गया। स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा महामारी की तीव्रता भी संभवतः इसे भूल जाने की एक वजह रही होगी। इससे पहले की महामारियों की समय-रेखा कई वर्षों तक फैली हुई होती थी। हैज़े जैसी महामारी ने तो उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में क़हर बरपा कर रखा था। ब्यूबॉनिक प्लेग की महामारी भी सन 1896 से सन 1910 तक भारत में कमोबेश बनी रही। ऐसे में स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा के आतंक का साम्राज्य महज़ दो वर्षों में ही सिमट गया। साथ ही स्पेनिश फ़्लू से पहले भारतीय जनमानस पिछले कई दशकों से विभिन्न महामारियों से जूझता आ रहा था। स्पेनिश फ़्लू महामारी औपनिवेशिक भारत में महामारियों की इस वृहद् श्रृंखला की एक कड़ी मात्र थी। यह सब मिलकर संभवतः स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा महामारी की विस्मृति का सामूहिक कारण बने।
बहरहाल, कोरोना नाम की इस महामारी ने स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा पर पड़ी इतिहास की गर्द को साफ़ कर दी है और वह अचानक सामने आ गई है। इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों तथा नीति-निर्माताओं की रूचि इस महामारी में दोबारा पैदा हो गई है। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि सोशल डिस्टेंसिंग, लॉकडाउन तथा मास्क की अनिवार्यता जैसे उपाय स्पेनिश इन्फ्लूएंज़ा महामारी के दौरान भी अपनाये गए थे। आशा है आने वाले कुछ वर्षों में इस महामारी से संबंधित और भी अध्ययन सामने आएंगे जो इसे इतिहास की महागाथा में स्थापित करने में सहायक होंगे।
मुख्य चित्र – संयुक्त राज्य अमेरिका के कंसास अवस्थित कैंप फ़िएस्टन अस्पताल।विकीमीडिआ
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