बिहार के मुंगेर शहर के बीचों-बीच एक ऐतिहासिक क़िला सदियों से खड़ा है, जिसने तवारीख़ को अनगिनत करवटें बदलते देखा है । और घटनाओं ने न सिर्फ़ बिहार के बल्कि पूरे हिन्दुस्तान के इतिहास को प्रभावित किया है। इस सरज़मीं पर कभी कुषाण राजाओं की तलवारें चमकी थीं तो कभी मीर क़ासिम के बारुदी धमाके भी गूंजते थे। मध्यकालीन-मुग़लकालीन दौर में यानी सन 1225 में मुंगेर के इस क़िले ने मुहम्मद ग़ौरी के हाथों पाल राजाओं की पराजय देखी है, तो यह पठानों के शासनकाल में दिल्ली के शासकों के रुतबे का भी गवाह बना।
इसने न सिर्फ़ बिहार-बंगाल-ओडिशा , बल्कि दिल्ली-सल्तनत के तख़्तो-ताज की लड़ाइयां भी देखी हैं । सलतनत और मुग़ल-काल की घटनाओं का जिक़्र करते हुए इतिहासकार डॉ.क़यामुद्दीन अहमद बताते हैं कि उत्तर भारत में, शुरुआती दौर में बिहार के इसी क्षेत्र में अपनी ताक़त दिखा कर शेर शाह दिल्ली के तख़्त पर आसीन हुआ था। शाह शुजा और मीर क़ासिम के दौर में मुंगेर को बंगाल की राजधानी बनने का मौक़ा मिला था।
अंग्रेज़ों के समय में भी इस क़िले का उपयोग सैनिक छावनी के रूप में किया गया था।
क़िले के अहाते में स्थित दो में से एक टीले पर महाभारत-कालीन योद्धा अंगराज कर्ण के नाम से जुड़े ‘कर्णचौरा’ के बारे में हे मिस्टर बुकानन बताते हैं कि यहां पर किसी राजा कर्ण के भवन के अवशेष पर अंग्रेज़ अधिकारी जनरल गोड्डार्ड ने अपने कमांडिंग ऑफ़िसर के लिये एक बंगले का निर्माण करवाया था।
इस क़िले की ख़ास अहमियत होने के दो प्रमुख कारण हैं : पहला है क्योंकि यह मुग़ल-काल में दिल्ली और बंगाल के बीच प्रमुख मार्ग पर स्थित है। बंगाल अभियान के दौरान बादशाह हुमायूं का क़ाफ़िला इसी रास्ते से गूज़रा, तो सन1573 और सन 1575 में इसने अकबर की फ़ौज की चहलक़दमी भी देखी। डॉ.बीपी.अम्बष्ट ‘बिहार इन द् एज आफ़ द ग्रेट मुग़ल अकबर ” में बताते हैं कि मुंगेर, बिहार सूबे के पूरब में स्थित अंतिम क्षेत्र था और बंगाल और बिहार सूबों की सीमा का रोल अदा करता था। मुंगेर से मात्र 130 किमी की दूरी पर तेलियागढ़ी का क़िला मौजूद है जिसे पार करके ही, उन दिनों, बंगाल की सीमा में प्रवेश किया जा सकता था। ‘आईन-ए-अकबरी’ के अनुसार बादशाह अकबर के समय में बिहार प्रांत सात ‘सरकारों’ में बंटा था जिसमें एक मुंगेर था।
‘मुंगेर सरकार’ में 31 ‘महाल’ थे जो सूरजगढ़ा के पश्चिम क्यूल नदी से लेकर बंगाल की सीमा तेलियागढ़ी तक फैले थे।
मुंगेर के क़िले के महत्त्वपूर्ण होने का दूसरा प्रमुख कारण था सामरिक दृष्टि से इसका शक्तिशाली होना और इसकी मज़बूत क़िले-बंदी जिसकी चर्चा, भारतीय इतिहासकारों सहित 18 वीं-19 वीं शताब्दी में, भारत का भ्रमण करनेवाले एच.एच.विल्सन, हेवल्स, ईम्मा रोबर्टस व विलियम होजेज़ सरीखे ब्रिटिश यात्रियों एवं पेन्टरों ने बड़े रोचक ढंग से की है।
मुंगेर का क़िला एक छोटी सी पहाड़ी पर बना है जिसे पश्चिम और आंशिक रूप से उत्तर की ओर से गंगा नदी सुरक्षा प्रदान करती थी, तो दूसरी तरफ़ 175 फ़ीट चौड़ी खाई व खड़गपुर की पहाड़ियां इसकी हिफ़ाज़त में तैनात थीं। मुंगेर के क़िले के निर्माण का ब्यौरा देते हुए एएसआई ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि ढ़ाई मील के व्यास में, यह 222 एकड़ ज़मीन पर फैला हुआ है। क़िले की दीवारें 30 फ़ीट चौड़ी हैं ।अंदरूनी दीवार 4 फ़ीट तथा बाहरी दीवार 12 चौड़ी है। उनके मध्य 14 फ़ीट का फ़ासला है । दोनों दीवारों के फ़ासले को मिट्टी से भरा गया है।
क़िले के चारों ओर चार प्रवेश-द्वार थे जिनके ऊपर, समान दूरी पर वृत्ताकार अथवा अष्टकोणीय बुर्ज बने थे जिनके कंगूरों में नक़्क़ाशीदार पत्थर लगे थे। ब्रिटिश यात्री एच.एच,विल्सन ने लिखा है कि गंगा नदी क़िले की दो तरफ़ की दीवारों से एकदम सट कर बहती थी । बरसात के मौसम में यहां पानी इतने उफ़ान पर रहता था और इसकी धाराएं इतनी तेज़ बहती थीं कि यहां अक्सर नौकाएं डूब जाया करती थीं। इसी वजह से उन दिनों इस क्षेत्र में नौका से यात्रा करना या नदी-मार्ग से हमला करना जोखिम भरा काम माना जाता था। क़िले की दीवारें तो ईंट से बनी हुई हैं, पर इसके प्रवेश-द्वार पत्थर के बने हैं । यह पत्थर पास ही की खड़गपुर-पहाड़ियों से लाये गये थे।
मुंगेर का क़िला कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह रहा है। इस क़िले के बारे में बताया जाता है कि इसका निर्माण प्रारंभिक गुलाम-वंश के काल में हुआ था। मुंगेर शहर मुहम्मद बिन तुग़लक़ के अधीन था। डॉ. सैयद हसन असकरी और डॉ क़यामुद्दीन अहमद अपनी पुस्तक ‘कम्प्रिहेंसिव हिस्ट्री आफ़ बिहार’ में लिखते हैं कि दक्षिण बिहार के आधुनिक ज़िले मुंगेर तथा भागलपुर निश्चित रूप से बंगाल के सुलतान के अधीन थे, जबकि पटना, गया और शाहाबाद ज़िलों पर बिहार के मुहम्मद नूहानी का शासन था। जब सुलतान महमूद शाह बंगाल की गद्दी पर बैठा, तो दक्षिण बिहार में स्थित मुंगेर हुकुमत और सम्पूर्ण उत्तरी बिहार महमूद शाह के अधीन था।
जब प्रथम मुग़ल बादशाह बाबर अपने शुरुआती शिकस्तों से उबरने के बाद अपने साम्राज्य का विस्तार करने लगा, तो मुंगेर के क़िले के जांबाज़ सरदार क़ुतुब ख़ान ने बाबर की फ़ौज को तीन तरफ़ से घेर लिया बाबर की फ़ौज के विजय-अभियान के सामने एक दीवार बनकर खड़ा हो गया था। लेकिन क़ुतुब ख़ान की यह बदक़िस्मती रही कि वह शेरशाह के हमले में लड़ता हुआ मारा गया और इस क़िले पर शेरशाह का कब्ज़ा हो गया। मुंगेर के क़िले पर कुछ समय के लिये हुमायूं का भी कब्ज़ा रहा। पर शेर शाह के साथ आगरे के युद्ध में, हुमायूं की शिकस्त के बाद, यह क़िला पठान बादशाह के हाथों में चला गया।
इतिहासकार डॉ क़यामुद्दीन अहमद एवं डॉ.हसन असकरी सलतनत और मुग़ल-काल पर रौशनी डालते हुए लिखते हैं कि उत्तर भारत में, शुरुआती दौर में, बिहार के इसी क्षेत्र से फ़रीद खां का उदय हुआ, जिसे इतिहास शेर शाह सूरी के नाम से जानता है। इसी क्षेत्र में हुए संघर्षों के कारण, हुमायूं को शेर शाह के हाथों पराजित हो कर फ़ारस भागना पड़ा था । शेर शाह बेहद साधारण स्थति से उठकर दिल्ली के तख़्त पर बैठ गया था।
मुंगेर के निकट स्थित नूपुरा (बेगूसराय) की लड़ाई में, मुंगेर के सुबेदार क़ुतुब खां की मौत के बाद, बंगाल का सुलतान महमूद शाह, हाजीपुर के सूबेदार मख़दूम आलम को सबक़ सिखाना चाहता था, क्योंकि उसने शेर शाह से हाथ मिला लिया था। महमूद शाह ने क़ुतुब के बेटे इब्राहीम के नेतृत्व में एक सशक्त फौजी दस्ता भेजा। शेर शाह के साथ क़ुतुब का मुक़ाबला गंगा नदी और खड़गपुर की पहाड़ियों के बीच, मुंगेर के निकट सूरजगढ़ के मैदान में हुआ। अपने रणनीतिक कौशल से शेर शाह ने इस जंग में फ़तह हासिल कर ली। उसी के बाद वह बिहार का अविवादित स्वामी बन गया। उसके कब्ज़े में सूरजगढा (मुंगेर) से चुनार तक के क्षेत्र आ गये थे । अपनी किताब ‘द मुग़ल एम्पायर’ में आर.सी. मजुमदार लिखते हैं कि इस फ़तह से जहां शेर शाह की प्रतिष्ठा बढ़ी, वहीं बंगाल के सुलतान महमूद शाह की स्थति कमज़ोर हो गई थी। अंत में, तेलियागढ़ी और गौड़ (बंगाल) पर शेर शाह के हमलों से हार कर महमूद शाह को मजबूरन हुमायूं की शरण में जाना पड़ा। महमूद की सहायता के लिये बादशाह हुमायूं ने मुंगेर के निकट कहलगांव (भागलपुर) में पड़ाव तो ज़रूर डाला, लेकिन शेर शाह ने अपनी कुशल रणनीति से हिमायूं की कोशिशों को नाकाम कर डाला।
शेर शाह की मृत्यु के बाद मुंगेर का क़िला उसके पोते आदिल शाह के कब्ज़े में आ गया। पर सन 1558 में बादशाह अकबर के सिपहसालार बैरम खां ने क़िले पर आक्रमण किया जिसमें आदिल शाह की, क़िले के पूर्वी दरवाज़े के पास लड़ते हुए मौत हो गयी।
आगे चलकर शेर शाह के वंशज पठान सरदार दाऊद खां ने सन 1575 में मुंगेर के क़िले पर क़ब्ज़ा जमाकर बग़ावत कर दी जिसे कुचलने के लिये अकबर ने मानसिंह और टोडरमल को भेजा। दाऊद ख़ां को परास्त होकर भागना पड़ा और सन 1580 में मुग़ल सेना के हाथों उसकी मौत हो गई।
मुंगेर के क़िले ने पुनः सन 1605 में एक दूसरी बग़ावत बादशाह जहांगीर के काल में देखी जो क़िले के राजपूत सरदार संग्राम सिंह ने की थी। लेकिन संग्राम सिंह की बग़ावत नाकाम हो गई और उसे, जहांगीर के सेनापति क़ुली खां के हाथों मुंहखी खानी पड़ी थी। किंतु शाहजहां के शासनकाल में यह क़िला एक बार फिर मुग़लों के हाथों से निकल गया था।
शाहजहाँ का पुत्र शाह शुजा जब बंगाल का मनसबदार बना तो उसने मुंगेर को अपने क़ब्ज़े में लेकर, इसे अपनी राजधानी बनाया। शाहजहां के दौर में शाह शुजा सन 1639 और 1649 तक, दो बार बंगाल का मनसबदार बना जिसकी अवधि दोनों बारअस्करी 8-8 साल रही। शाह शुजा जब सन 1639 में पहली बार बंगाल का मनसबदार बना, तो अपना मुख्यालय ढ़ाका से हटाकर राजमहल ले आया। बंगाल के इतिहास से संबंधित पुस्तक ‘रियाज़ुस सलातीन’ के अनुसार एक क़ाबिल प्रशासक होने के साथ साथ शुजा वास्तु-कला का बड़ा प्रेमी था। उसने ढ़ाका और राजमहल के साथ मुंगेर में अनेक ख़ूबसूरत महल बनवाये थे। अंग्रेज़ लेखक जान मार्शल के हवाले से ‘द् कम्प्रेहेंसिव हिस्ट्री ऑफ़ बिहार’ में डाॅ कयामुद्दीन अहमद एवं डॉ हसन असकरी बताते हैं कि मुंगेर में शुजा का बनवाया हुआ विशाल महल, गंगा के किनारे स्थित क़िले के पश्चिम में, डेढ़ कोस के विस्तार में फ़ैला था जो 15 गज़ ऊंची दीवारों से घिरा हुआ था। मार्शल ने इस महल के भीतरी द्वार पर पत्थर के तराशे हुए हाथी की दो मूर्तियों के साथ बड़ी-बड़ी फुलवारियां, छतदार मकान, मस्जिदें तथा मक़बरे देखे थे। अंग्रेज़ अधिकारी फ़्रांसिस बुकानन ने भी मुंगेर में शुजा के महल होने का जिक़्र किया है।
सन 1657 में, जब शाहजहां के बेटों के बीच तख़्त के लिये रस्साकशी शुरू हुई, तो शुजा ने राजमहल से ख़ुद को बादशाह घोषित कर दिया और मुंगेर के क़िले के सामरिक महत्व को देखते हुए, यहां आकर अपनी गतिविधियां संचालित करने लगा । डॉ. क़यामुद्दीन अहमद के अनुसार दिल्ली की गद्दी की लड़ाई के दौरान शुजा अधिकांश समय मुंगेर में ही रहा। शाहजहां के बेटों के बीच गद्दी के लिये चल रही कुटिल चालों की जानकारी देते हुए ‘आलमगीरनामा’ के हवाले से ‘रियाज़ुस सलातीन’ में बताया गया है कि आगरे में सत्ता के क़रीब बैठे शाहजहां के बड़े बेटे दारा शिकोह ने अपने तीनों भाईयों को मौत के घाट उतारने की योजना बनाई थी और इस मंशा से उसने सबसे पहले शुजा से निपटने के लिये अपने बेटे सुलेमान शिकोह को मुंगेर रवाना किया था ।
इसके आगे की घटना के बारे में इतिहासकार जदुनाथ सरकार ‘ए शार्ट हिस्ट्री आफ़ औरंगज़ेब’ में लिखते हैं कि इधर हथियारों के ज़ख़ीरे को लेकर ‘नव्वारा’ (बंगाल के युद्ध-पोत) के साथ शुजा बनारस आ धमका और उधर सुलेमान शिकोह भी 22 हज़ार फ़ौजियों को लेकर बनारस के निकट बहादुरपुर आ पहुंचा, जहां शुजा ने पड़ाव डाल रखा था। सुलेमान ने अलस्सुबह शुजा के ख़ेमों पर धावा बोल दिया जिससे उसके सैनिक घबरा कर भाग खड़े हुए और शुजा को भी भाग कर पटना के रास्ते मुंगेर वापस आना पड़ा।
मुंगेर में, शुजा ने वहां की भौगोलिक एवं सामरिक ख़ासियत का फ़ायदा उठाते हुए, गंगा से लेकर खड़गपुर की पहाड़ियों तक 2 मील लम्बा ख़ंदक़ खुदवाकर उसपर तोपें तैनात करवा दीं, जिससे मुंगेर में प्रवेश का रास्ता पूरी तरह अवरुद्ध हो गया। नतीजे में सुलेमान शिकोह को मजबूरन मुंगेर से 25 किमी दूर सूरजगढ़ में महीनों भर पड़ाव डालकर पड़ा रहना पड़ा। लेकिन पिता दारा शिकोह की सलाह पर शुजा के साथ संधि करनी पड़ी। शर्त यह रखी गई कि शुजा के पास मुंगेर का मालिकाना हक़ तो रहेगा लेकिन वह मुंगेर की बजाय राजमहल में रहेगा।
शाहजहां के बेटों के बीच चल रहे इस संघर्ष में अंततः औरंगज़ैब ने दारा शिकोह को परास्त कर दिया और ‘आलमगीर गाज़ी’ की पदवी धारण कर दिल्ली का ताज पहन लिया। उसके बाद औरंगज़ैब ने शुजा को दोस्ताना अंदाज़ में एक पत्र लिखा ।ख़त में उसे बंगाल की मनसबदारी के अलवा पूरा बिहार सौंपने का झांसा दिया गया। शुजा उस झांसे में आ गया और अंततः उसे निर्वासित जीवन व्यतीत करना पड़ा।
शाह शुजा के बाद मुंगेर का क़िला बंगाल के सूबेदार आज़म खां और इसके बाद मुर्शिदाबाद की स्थापना करनेवाले क़ुली ख़ान के कब्ज़े में आ गया। सन 1715 से सन 1725 के बीच बंगाल के नवाब अली वर्दी ख़ां ने इसका उपयोग शस्त्रागार के रूप में किया। सन 1757 में पलासी की लड़ाई में सिराजुद्दौला के विरुद्ध अंग्रेज़ों का साथ देने के कारण मीर जाफ़र को मुंगेर का क़िला इनाम में दे दिया गया था। बाद में मीर जाफ़र के साथ संबंध खट्टे हो जाने के कारण ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बंगाल में मीर क़ासिम की कठपुतली सरकार बैठा दी। पर अंग्रेज़ों की दोहरी चालों से आजिज़ आकर मीर क़ासिम ने ख़ुद को उनके चंगुल से मुक्त कराने की मंशा से मुंगेर के क़िले को अपना महत्वपूर्ण केन्द्र बनाया। उसने मुर्शिदाबाद की बजाय मुंगेर को अपनी राजधानी बनाया और अपने सारे ख़ज़ाने, हाथी-घोड़े, यहां तक कि इमामबाड़े में लगी सोने-चांदी की सजावटी चीज़ों को भी पुरानी राजधानी से हटाकर नयी राजधानी मुंगेर ले आया जिसका बड़ा ही ख़ूबसूरत वर्णन ग़ुलाम हुसैन ने अपनी पुस्तक ‘सैर-उल-मुख़तरीन’ में किया है।
मुंगेर में मीर क़ासिम ने अपने लिये एक महल बनवाया जिसकी बाहरी दीवार पर तीस तोपें तैनात करवा दी गईं थीं और क़िले-बंदी को मज़बूत कर दिया गया था। उसके चहेते सेनापति आर्मेनिया के गुर्गीन (ग्रेगरी)ख़ान ने सेना को पुनर्गठित करते हुए इसे अंग्रेज़ों की तरह तैयार किया था। गुर्गीन ख़ान की सबसे बड़ी देन यह रही कि उसने मुंगेर में शस्त्रागार की स्थापना की जिसकी नींव इतनी गहरी पकड़ी कि आज भी यहां आग्नेयास्त्रों के निर्माण की परम्परा जारी है। 18 वीं-19 वीं शताब्दी में मुंगेर का दौरा करनेवाले ब्रिटिश यात्री एच.एच.विल्सन ने यहां कटलेरी व हार्डवेयर के साथ उन्नत अवस्था में बंदूक़ों का निर्माण होते देखा था, वहीं इम्मा रोबर्ट्स ने यहां दोनाली एक बंदूक़,बत्तीस रूपये में और एक रायफ़ल 30 रूपये में बिकते देखी थी। मीर क़ासिम के समय से मुंगेर में चली आ रही इस शस्त्र और बंदूक़ निर्माण कौशल की उन्नत परम्परा से प्रभावित होकर ही ईस्ट इंडिया रेलवे ने सन 1862 में मुंगेर के जमालपुर में भारत का पहला सुसज्जित लोकोमोटिव वर्क्सशाप स्थापित किया था।
मुंगेर में पूरी मज़बूती से जमे होने के बावजूद मीर क़ासिम का अंग्रेज़ों के साथ मनमुटाव शुरू हो गया, जिसका पहला कारण बना मुंगेर क़िले के अंदर घटी कुछ घटनाएं। पटना में इंग्लिश फ़ैक्ट्री के अधिकारी मिल इलीस, जो एक अव्यवहारिक व्यक्ति था, को, जब एक अपुष्ट सूचना मिली कि मुंगेर के क़िले में दो भगोड़े अंग्रेज़ छिपे हुए हैं, तो उसने क़िले की तलाशी लेने के लिए एक सार्जेंट को सिपाही की एक कम्पनी के साथ भेज दिया। लेकिन अंग्रेज़ सिपाहियों को क़िले में प्रवेश की अनुमति नहीं दी गई जिसे इलीस ने मीर क़ासिम की आक्रामकता माना और उसकी शिकायत कर दी। वहीं मीर क़ासिम ने भी आला अंग्रेज़ अधिकारियों से इसकी शिकायत की और इसे अपनी तौहीन बताया। नवाब मीर क़ासिम और इलीस के बीच संबंध बदतर होते देख कलकत्ता से वारेन हैस्टिंग्ज़ तक को भेजा गया। पर बात नहीं बनी और इसके दूरगामी परिणाम दोनों को झेलने पड़े।
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