अमृतसर में श्री हरिमंदिर साहिब के क़रीब छठे गुरू हरिगोबिंद साहिब के सुपुत्र बाबा अटल राय जी से संबंधित एक यादगार और एतिहासिक इमारत है। इस इमारत का महत्व गुरू साहिब के प्रवचनों की वजह से भी है। साथ ही यह एतिहासिक इमारतों में सबसे ऊँची तो है ही, यह धर्म और कला क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए भी एक बड़ा मरकज़ बन चुकी है। यहां की दीवारों और छतों पर की गई चित्रकारी तथा दीवार- चित्रों को देखने के लिए पर्यटक एवं श्रद्धालु दूर दराज़ से यहां पहुँचते हैं।
बाबा अटल राय जी का जन्म 22 दिसम्बर सन 1619 को हुआ था। उनकी मां का नाम माता महादेवी था । उनका जन्म अमृतसर में हुआ था। उनके पिता छठी पादशाही के गुरू हरिगोबिंद साहिब थे । जबकि गुरप्रताप सूरज ग्रंथ में उनकी माता का नाम माता नानकी लिखा हुआ है जबकि कुछ अन्य ग्रंथों में अटल राय जी की जन्म तिथि 23 अक्तूबर लिखी गई है ।
बताया जाता है कि अटल राय जी की सोच तथा समझ, कम उम्र से ही ऊँची तथा सच्ची थी। इसीलिये इन्हें छोटी उम्र में ही ‘बाबा जी’ कह कर संबोधित किया जाने लगा था। जहां आज यादगार बाबा अटल राय साहिब सुशोभित हैं, उस स्थान पर बाबा अटल राय जी बाल अवस्था में अपने हमउम्र मित्रों के साथ खेलने आया करते थे। इस स्थान पर, उस समय पानी की ढ़ाब के किनारे विशाल मैदान हुआ करता था। सिख विद्वानों के अनुसार एक दिन अटल राय जी जब अपने मित्रों सहित मैदान में खेलने पहुँचे तो वहां उनके मित्र मोहन दिखाई नहीं दिये तो वह उन्हें बुलाने उनके घर पहुंच गये। मोहन, भाई सोनी के इकलौते सुपुत्र थे। वहां पहुँचने पर पता लगा कि पिछली रात सांप के डस ने से मोहन की मृत्यू हो गई थी।
इस पर बाबा अटल राय जल्दी से अपने मित्र के पास गए और उसकी गर्दन में, अपने हाथ में पकड़ी खूंटी डालकर कहने लगे,”चल उठ भाई मोहन, अपनी बारी दे और मरने के बहाने न बना।” यह सुनकर पिछले कई घंटों से मृत पड़े मोहन उठ खड़े हुए और आँखें मलते हुए अपने मित्र बाबा अटल राय का हाथ पकड़कर मैदान में खेलने के लिए चले गए।
बाबा अटल राय की इस करामात की चर्चा, देखते ही देखते सारे नगर में फैल गई। जब गुरू हरिगोबिंद साहिब को यह ख़बर मिली तो उन्होंने बाबा अटल राय को अपने पास बुलाया और समझाया-”करामात क़हर है। इस तरह आपने किसी मृत को ज़िंदा करके तुमने सतिगुरू अकाल पुरूख के हुक्म में दख्लअंदाज़ी की है।” गुरू पिता के ये वचन सुन अटल राय जी ने कहा, ”मैंने वाहिगुरू से अपने मित्र के प्राणों का दान मांगा था। जिसके बदले में मैं वाहिगुरू को अपने प्राण सौंप देता हूँ।” यह कह कर वे गुरू-पिता को नमस्कार करके चुपचाप कौलसर सरोवर के किनारे चादर तान के लेट गये और प्राण त्याग दिये। यह सरोवर माता कौला देवी की स्मृति में गुरू साहिब ने बनवाया था । यह वही जगह है जहां बाबा जी की यादगार सुशोभित है । यानी मात्र 9 वर्ष की आयु में 24 सितम्बर सन 1628 को बाबा अटल राय अकाल पुरूख की ज्योति में विलीन हो गये। हालांकि कुछ लेखकों ने उनके प्राण त्याग ने की तारीख़ 13 सितम्बर और कुछ ने 23 जुलाई भी लिखी है।
तवारीख श्री अमृतसर में ज्ञानी ज्ञान सिंह लिखते हैं कि अटल राय जी के बडप्पन को देखकर ही गुरू साहिब ने फरमाया कि जो इनको मानेगा उसकी सेवा गुरू-घर में प्रवाण होगी। इस तरह बाबा अटल राय साहिब गुरू-घर के थानेदार (दारोगा) माने गए। गुरू जी ने इसी जगह पर अटल राय जी के लिए वचन किया-”चाहे आप उम्र में छोटे थे, परन्तु आपकी यादगार बहुत बड़ी बनेगी और कोई भी आपकी इस यादगार से भूखा नहीं जाएगा।” गुरू साहिब द्वारा किए वचनों के चलते यहां निरंतर लंगर जारी रहता है और पिछले समय में नगर की महिलाएं घर से लंगर तैयार करके भी यहां संगत में वितरण के लिए ले आती थीं। बाबा अटल राय साहिब के बारे में बात करते संगत के मुँह से ये शब्द आम ही सुनने को मिल जाते हैं-”बाबा अटल, पक्कियां-पकाईयां घल्ल।“
यादगार बाबा अटल राय साहिब की इमारत अमृतसर की सभी इतिहासिक इमारतों से आज भी ऊँची है। पिछले समय में इसे ‘अमृतसर का कोतवाल’ भी कहा जाता था। बाद में संगत ने बाबा जी की उम्र नौ वर्ष की रही होने के कारण उनकी समाधि के स्थान पर नौ-मंजिला अष्ठ-कौणी भव्य इमारत का निर्माण करवा दिया। नीचे की कुछ मंज़िलें सन् 1784 में स. जोध सिंह रामगढ़िया ने तैयार करवाईं और बाद में महाराजा रणजीत सिंह ने कुछ मंज़िलें स. दयाल सिंह की मार्फत तैयार करवाईं और देसा सिंह मजीठिया से यादगार का गुंबद सुनहरी करवाया। यादगार बाबा अटल राय की छः मंज़िलें बड़ी तथा तीन छोटी हैं। अगर सुनहरी गुंबद तथा सुनहरी कलष को भी जोड़ लिया जाए तो ग्यारह मंज़िलें बनती हैं। पिछले समय में बड़े-बड़े और नामी सरदारों का संस्कार यादगार के पास ही किया जाता था और यहीं पास ही उनकी समाधियां बनवाई जाती थीं, जिस कारण नवाब कपूर सिंह, स. जस्सा सिंह आहलूवालिया, दरबारा सिंह, गंडा सिंह पशौरिया, अकाल सिंह, देसा सिंह मजीठिया, ग्रंथी भाई मक्खन सिंह, ज्ञानी भाई संत सिंह, रानी सदा कौर, रानी महताब कौर, कंवर पिशौरा सिंह, कंवर कश्मीरा सिंह तथा बाबा हरे आदि की समाधें मौजूद थीं। अकाली लहर के दौरान नवाब कपूर सिंह तथा स. जस्सा सिंह आहलूवालिया की समाधों के अतिरिक्त शेष सब समाधों को गिरा दिया गया। भाई संत सिंह की समाधि भी गिराकर नए स्थान पर कौलसर के पूर्वी किनारे पर बना दी गई। मौजूदा समय बाबा अटल राय जी की यादगार के पास ही कंवर कश्मीरा सिंह सुपुत्र महाराजा रणजीत सिंह, नवाब कपूर सिंह, स. जस्सा सिंह आहलूवालिया तथा बाबा हरिनाम की समाधें ही मौजूद हैं।
यादगार बाबा अटल राय जी की दीवारों व छतों पर की गई नक्काशी, मीनाकारी तथा गच्चकारी सहित इस स्मारक की बनावट का कहीं पर भी कोई जोड़ नहीं है। विदेशी पर्यटक तो विशेष तौर पर इन दीवार-चित्रों के रूप में मौजूद पंजाबी विरासत को कैमरों में कैद करने के लिए पहुँचते हैं। उक्त यादगार की दीवारों पर बने बहु-मूल्य दीवार-चित्र तथा मीनाकारी सहित छतों पर किए गच्चकारी तथा शीशे के किए काम को कायम रखने के लिए भारतीय पुरातत्व विभाग के माहिरों द्वारा एस.जी.पी.सी. (षिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी) के सहयोग से सख्त प्रयास किए गए हैं।
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