चाय बाग़ान, हरियाली से भरपूर और रहस्यमयी वादियों के लिए मशहूर नीलगिरी पर्वतमाला का एक ऐसा भी पहलू है, जिसका ताल्लुक़ भारतीय सेना से है। इसकी वजह दरअसल एक ऐसी छावनी है, जो भारतीय थल सेना की एक रेजिमेंट के मुख्यालय के साथ-साथ एक सैन्य ट्रेनिंग संस्थान भी है। दिलचस्प बात ये है, कि भारतीय सेना के कई वरिष्ठ अफ़सर इस छावनी को एक ‘पिकनिक पोस्टिंग’ या ‘सैर-सपाटे वाले तबादले’ की तरह मानते हैं! जी हाँ, ये जगह है ….वेलिंग्टन!
तमिलनाडु राज्य में नीलगिरी ज़िले में बसा वेलिंग्टन दरअसल दो मशहूर हिल स्टेशनों- ऊटी और कुनूर के बीच है। मद्रास रेजिमेंट का मुख्यालय होने के अलावा यह भारतीय सेना के महत्वपूर्ण शिक्षा और ट्रेनिंग संस्थानों में से एक भी है। लेकिन भारतीय इतिहास के साथ गहरे संबंधों के बावजूद आज भी लोग इसे बहुत कम जानते हैं।
वेलिंग्टन के शुरूआती इतिहास के बारे में ख़ास जानकारी उपलब्ध नहीं है। हालांकि कई ऐतिहासिक दस्तावेज़ बताते हैं, कि ऊटी और कुनूर के आसपास टोडा और बड़गा आदिवासियों का डेरा हुआ करता था। दक्षिण भारत में लड़ी गईं कई जंगों में, सेनाओं के छिपने के लिए यह एक मुनासिब जगह मानी जाती थी। अट्ठारहवीं शताब्दी के आख़िरी वर्षों के दौरान नीलगिरी क्षेत्र मैसूर शासक टीपू सुल्तान के अधीन था। सन 1799 में चौथे आंगल-मैसूर युद्ध के बाद, जब अंग्रेज़ों का मैसूर पर क़ब्ज़ा हुआ, तो नीलगिरी भी उनके अधीन हो गया। ठंडे और ख़ुशनुमा मौसम की वजह से, अंग्रेज़ों को ये इलाक़ा रास आने लगा था। इसीलिए वे यहाँ पर बसने लगे।एक तरफ़ उत्तर भारत में शिमला और अल्मोड़ा और पूर्व में दार्जीलिंग जैसे हिल स्टेशन अंग्रेज़ी अधिकारियों के बीच लोकप्रिय हो रहे थे। दूसरी तरफ़ मालाबार में मुन्नार और मैसूर के निकट कूर्ग के साथ ऊटी और उसके आसपास के इलाके अंग्रेज़ों के लिए, दक्षिण भारत में, हिल स्टेशन की कमी को पूरा कर रहे थे।
इस दौरान भारत के ज़्यादातर हिस्सों पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो चुका था। दक्षिण में अपनी सैन्य शक्ति को मज़बूत बनाने के लिए, अंग्रेज़ों ने मद्रास की सेना के लिए ब्रिटेन से और सिपाही बुलाए थे। इस सेना की शुरुआत सत्रहवीं शताब्दी के अंत में स्थानीय सैनिकों और अंग्रेज़ी सैनिकों की एक छोटी टुकड़ी के साथ हुई थी। वही फ़ौजी आगे चलकर दक्षिण भारत के कई हिस्सों में अलग-अलग पलटनों में बंट गए थे। जैसे-जैसे भारत में अंग्रेज़ों का राज बढ़ता गया, इस सेना का विस्तार होता चला गया। आगे चलकर, इसी सेना ने मद्रास रेजिमेंट का रूप धारण कर लिया ।
लेकिन मद्रास के फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज में मौजूद सरकार के सामने दिक़्क़त ये थी, कि इंग्लैंड के ठंडे इलाक़ों में रहने वाले सिपाहियों को दक्षिण भारत की गर्मी और उमस की आदत नहीं थी। यानी एक ऐसे इलाक़े की आवश्यकता थी, जहां गोरे सैनिकों को कुछ दिनों तक रखा जा सके, ताकि वो स्थानीय मौसम और वहां की सामाजिक स्थितियों के लिए तैयार हो पाएं। इस मक़सद के लिए बनाए जाने वाले सेनेटोरियम या सेहतगाह के लिए सबसे पहले तिरुचिन्नापल्ली को चुना गया। लेकिन एक सर्वेक्षण के दौरान ऊटी और कुनूर के बीच, आदिवासियों का क़स्बा जकातल्ला ज़्यादा मुनासिब लगा। क्योंकि इस सेहतगाह में एक रेजिमेंट की तैनाती भी होनी थी। इस तरह के इलाक़े में एक छावनी की कमी भी पूरी हो जाएगी। ये सुझाव दरअसल आयरन ड्यूक ऑफ़ वेलिंग्टन, आर्थर वेल्लेस्ले ने दिया था, जिसपर सन 1830 के दशक के अंत तक अंग्रेज़ी प्रशासन की मुहर लग गई थी।
सन 1847 में जकातल्ला में सेहतगाह का निर्माण हो चुका था। वहां अंग्रेज़ी अफ़सरों को ट्रेनिंग भी दी जाने लगी। जैसे-जैसे अफ़सरों की संख्या बढती चली गई, इसे और विस्तार देने के लिए एक बरैक के निर्माण की योजना पर ज़ोर दिया गया। सन 1852 में निर्माण का काम शुरू हुआ।वरिष्ठ अधिकारियों की सामूहिक सहमति से, वेल्लेसले के नाम के साथ जुड़े “वेलिंग्टन” पर ही जगह का नाम वेलिंग्टन रखा गया। फिर सन 1860 तक बरैक पर काम हुआ और इसे वेलिंग्टन बैरक कहा जाने लगा। सन 1947 तक कई ब्रिटिश रेजिमेंट यहाँ रहीं। इसी दौरान गिरिजाघर समेत कई इमारतों का निर्माण हुआ जो आज भी मौजूद हैं। दिलचस्प बात ये है, कि आज भी इनमें से कई इमारतों का इस्तेमाल, किलिमंजारो सिनेमा हॉल, आर्मी स्कूल और केन्द्रीय विद्यालय वेलिंग्टन के लिए हो रहा है।
वेलिंग्टन में ब्रिटिश अधिकारियों की तादाद बढ़ने के बाद, उनके लिए एक क्लब खोला गया, जो आज वेलिंग्टन जिमखाना क्लब के नाम से मशहूर है। एक लोकप्रिय मान्यता के अनुसार, मेट्टूपालयम से लेकर ऊटी तक मीटर गेज की रेलवे बनाने की बात इसी क्लब में हुई थी। ये बात भी तय हुई थी कि वेलिंग्टन को, दोनों जगहों के बीच एक स्टेशन के तौर पर इस्तेमाल किया जाएगा। शायद यही वजह थी कि सन 1899 में जब ऊटी की मशहूर टॉय ट्रेन को पटरी पर उतारा गया तो वेलिंग्टन भी उसके रास्ते में एक स्टेशन बना, जो आज भी वहां मौजूद है!
पहले और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान वेलिंग्टन, ब्रिटिश सेना की रेजीमेंटों के ठहरने, हथियार और रसद सामग्री रखने के काम आया। लेकिन जब सन 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ तब वेलिंग्टन के इतिहास में दो नए अध्याय दर्ज हुए। उस वर्ष जब नवगठित भारतीय थल सेना के तहत मद्रास रेजिमेंट की स्थापना हुई, तब इसका रेजिमेंटल सेंटर या मुख्यालय वेलिंग्टन स्थानांतरित किया गया। इसके साथ एक और भी यादगार अध्याय दर्ज हुआ; यानी यहां डिफ़ेन्स सर्विसेस स्टॉफ़ कॉलेज (सैन्य सेवा अधिकारी शिक्षण संस्थान) का स्थानान्तरण।
वर्तमान भारतीय सैन्य अधिकारियों के बीच, डी.एस.एस.सी या स्टॉफ़ कॉलेज के नाम से लोकप्रिय इस स्थान की शुरुआत सन1905 में आर्मी स्टॉफ़ कॉलेज के तौर पर देवलाली (महाराष्ट्र) में हुई थी। ये वो दौर था जब ब्रिटिश इंडियन आर्मी में सैन्य अधिकारियों को उच्च पदों के लिए तैयार करना था। इसके बाद, इस क़ालेज को वर्तमान पाकिस्तान के क्वेटा ले जाया गया था। जब सन 1947 में भारत का विभाजन हुआ, तब सेना, हथियारों और संसाधनों के विभाजन का मुद्दा भी सामने आया था, जिसमें सैन्य संस्थान भी शामिल थे। अंग्रेज़ अधिकारियों ने अपनी जांच में ये पाया कि सेना के 46 ट्रेनिंग संस्थान भारत में थे और सात पाकिस्तान में। इसमें क्वेटा का आर्मी स्टॉफ़ कॉलेज भी था। जनसंख्या के अनुपात के लिहाज़ से, छात्रों की बड़ी तादाद, सैन्य अफ़सर और संसाधन भारत के हिस्से में आए और आर्मी स्टॉफ़ कॉलेज की लायब्रेरी पाकिस्तान को मिले।
नवगठित भारत में सैन्य अफ़सरों के लिए ट्रेनिंग संस्थान की आवश्यकता को मद्देनज़र रखते हुए, कर्नल एस.डी. वर्मा ने कई जगहों का मुआएना किया। तभी उनकी नज़र वेलिंग्टन पर पड़ी। उनका ये मानना था कि भौगौलिक रूप से वेलिंग्टन एक उपयुक्त इलाक़ा था जो नीलगिरी की पहाड़ियों के साथ ही कोयम्बतूर के मैदानी इलाक़े और मैसूर के जंगलों से घिरा हुआ था। फिर इसके आसपास ऊटी और पायकारा जैसी महत्वपूर्ण झीलें भी थीं। दो महत्वपूर्ण बातें और भी थीं, कि एक तो क्वेटा की तरह ये भी दूरदराज़ क्षेत्र था ,दूसरा यह कि अंग्रेज़ों के यहाँ से जाने के बाद, कई इमारतें वीरान हो गईं थीं। जिनका इस्तेमाल, नए ट्रेनिंग संस्थान के लिए किया जा सकता था।
जब कर्नल वर्मा के सुझाव पर वेलिंग्टन में एक नए ट्रेनिंग संस्थान के बीज बोये जा रहे थे, उसी दौरान उनको इस योगदान के लिए ब्रिगेडियर का बड़ा पद मिल गया और वो इस संस्थान के पहले कमांडेंट बनें। अप्रैल सन 1948 में पहला कोर्स शुरु हुआ। इस कोर्स की मियाद बीस दिन थी और इसमें कुल पचास भारतीय सैन्य अफ़सर थे, जिनमें से 46 थल सेना, औ दो-दो अफ़सर नौसेना और वायु सेना के थे। इसका मुख्य उद्देश्य था, कि अफ़सरों को वरिष्ठ पदों और विभिन्न परिस्थितियों के हिसाब से आत्मनिर्भर और क़ाबिल बनाया जा सके। साथ ही सेना के तीनों अंगों के बीच एक तालमेल भी क़ायम किया जा सके। थल सेना प्रमुख टी.एन.रैना और वायु सेना प्रमुख एच. मूलगावाकर ने यहीं से ट्रेनिंग हासिल की थी। चंद बरस बाद यहां कोर्स की अवधि बढती गई। आज यहां एक साल तक की ट्रेनिंग होती है। उसके बाद यहां के कोर्स में विदेशी अफ़सरों के साथ कई भारतीय सरकारी (गैर-सैन्य) अफ़सर भी शरीक होने लगे।
सन 1964 में वेलिंग्टन बैरेक्स का नाम, मद्रास रेजिमेंट के पहले भारतीय कर्नल जनरल एस.एम. नागेश के नाम पर “श्रीनागेश बैरेक्स” रखा दिया गया। उसके बाद से वेलिंग्टन भारतीय सेना के एक महत्वपूर्ण सैन्य और ट्रेनिंग केंद्र के रूप में उभरा। इस जगह की सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि बदलते समय के साथ, क़दम-से-कदम मिलाकर, इसने अपने गौरवशाली इतिहास और गरिमा को क़ायम रखा है।
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