ऑपरेशन मेघदूत: जब सियाचिन पर हुआ भारत का क़ब्ज़ा

ऑपरेशन मेघदूत: जब सियाचिन पर हुआ भारत का क़ब्ज़ा

ये कहानी भारतीय थल सेना के सहयोग से लिखी गयी है

जंग एक ऐसी अजीब चीज़ है, जो किसी ऐसी जगह के लिए भी लड़ी जा सकती है, जहां इंसान का जीवित रहना लगभग नामुमकिन हो। जी हां….दुनिया के इस सबसे बुलंद और सबसे ख़तरनाक मैदान-ए-जंग का नाम है….सियाचिन।

इतिहास की ज़रा-सी चूक ने भारत की सीमा से लगे एक बर्फ़ीले और दूर-दराज़ इलाक़े को दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धक्षेत्र में बदल दिया था। यह कहानी है सियाचिन की, जो भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष की वजह है। ये कहानी है उन भारतीय सैनिकों की, जिन्होंने अपने देश के लिए सब कुछ क़ुर्बान कर “ऑपरेशन मेघदूत” को कामयाब बनाया।

हिमालय के पूर्वी काराकोरम पर्वत श्रृंखला में सियाचिन हिमनद (ग्लेशियर) को ‘पृथ्वी पर सबसे ऊंचे युद्धक्षेत्र’ के साथ-साथ अध्रुवीय क्षेत्रों में दूसरे सबसे लंबे हिमनद के रूप में जाना जाता है। यह पश्चिम में साल्टोरो रिज और पूर्व में काराकोरम पर्वत श्रृंखला से लगे चीनी प्रांत शिनजियांग उइगर स्वायत्त क्षेत्र के क़रीब, पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले जम्मू-कश्मीर इलाक़े के पास एक तिराहे पर स्थित है।

सियाचिन का मानचित्र | विकी कॉमन्स

ये हिमनद नक़्शे में एक निर्देशांक पाइंट से शुरु होता है, जिसे NJ9842 कहा जाता है। NJ9842 उत्तर में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम रेखा का सबसे सीमांकित पाइंट है, जिसे नियंत्रण-रेखा (लाइन ऑफ़ कण्ट्रोल) के नाम से भी जाना जाता है। ये नियंत्रण- रेखा केंद्र शासित क्षेत्र लद्दाख़ के मुहाने पर है। समुद्र तल से लगभग 20 हज़ार फ़ुट की ऊंचाई पर स्थित, इस 76 किमी लंबे ग्लेशियर में औसतन बर्फ़बारी लगभग 35 फ़ुट होती है। यहां तापमान शून्य से माइनस 70 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। यह इलाक़ा ब्रिटिश सर्वेक्षणकर्ताओं की नज़रों से बच गया था। बाद में भारतीय सशस्त्र बलों के प्रयासों से सियाचिन और नुब्रा घाटी दुनिया के नक़्शे में दिखाई पड़े।

संघर्ष की भूमिका
जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह और भारत सरकार की और से सन 1947 में, जम्मू और कश्मीर रियासत के भारत में विलय के दस्तावेज़ पर दस्तख़त कर दिए गए थे । लेकिन पाकिस्तान इस समझौते से संतुष्ट नहीं था, क्योंकि वहां मुसलमान बहुसंख्यक थे। सन 1947-48 में कश्मीर को लेकर दोनों देशों के बीच एक ज़बरदस्त युद्ध हुआ। संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप बाद जम्मू-कश्मीर राज्य के भीतर एक युद्धविराम रेखा खींच दी गई। इस रेखा पर, जिसे बाद में ‘नियंत्रण रेखा’ के रूप में जाना जाने लगा, नक़्शे पर उस बिंदु तक आपसी सहमति बनी जिसे NJ9842 कहा जाता है। संयुक्त राष्ट्र ने यह स्पष्ट नहीं किया, कि सियाचिन ग्लेशियर पर किसका नियंत्रण होगा, जो उस बिंदु से थोड़ा आगे था। संयुक्त राष्ट्र ने शायद यह मान लिया होगा कि उस क्षेत्र को लेकर कोई संघर्ष नहीं होगा, क्योंकि वहां के मौसम हालात बहुत मुश्किल थे। इसी तरह, सन 1949 में हुए, कराची समझौते में भी सियाचिन का कोई ज़िक्र नहीं आया। तभी से भारत दावा करता रहा है, कि युद्धविराम रेखा “उत्तर में हिमनद की ओर से गुज़रती है।”

सन 1962 में जब चीन और भारत के बीच युद्ध हुआ, तो पाकिस्तान ने दोस्ती का हाथ चीन की तरफ़ बढ़ा दिया। चीन की सीमा भी सियाचिन से लगती है। ज़्यादा अहम बात ये थी कि पाकिस्तान ने दावा किया, कि NJ9842 से निकलने वाली युद्धविराम रेखा उत्तरी क्षेत्रों की तरफ़ नहीं बल्कि पश्चिम में काराकोरम दर्रे तक जाती है, जबकि सन 1949 समझौते में भारत ने दावा किया था, कि युद्धविराम रेखा उत्तरी क्षेत्रों तक जाती है। अमेरिकी नक़्शानवीसों ने भी पाकिस्तानी दावे पकड़ा । भारतीय अधिकारी भी चौकन्ने हो गए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और 1965 में हुए माउंट एवेरेस्ट अभियान में हिस्सा लेने वालों के साथ कर्नल नरेंद्र कुमार (बाहिने से दुसरे) | विकी कॉमन्स

इसी बीच, पाकिस्तानी सरकार ने सियाचिन क्षेत्र में पर्वतारोहण अभियानों को इजाज़त देनी शुरू कर दी। इन पर्वतारोही दलों के साथ उनकी सेना का एक संपर्क अधिकारी भी होता था। सन 1977 में, पाकिस्तानी और जापानी पर्वतारोहियों की पहली टुकड़ी लगभग 1500 क़ुलियों के साथ सियाचिन  के पास के2 पर्वत पर चढ़ी थी। अमेरिका की खुफिया एजेंसी सी. आई. ए की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय अधिकारियों को ये जानकारी मिली थी, कि पाकिस्तान ने पर्वतारोहण और सैन्य उद्देश्यों को पूरा करने के लिए ग्लेशियर के चारों ओर अपने ठिकाने बनाना शुरू कर दिए थे।

पाकिस्तान के ख़तरनाक इरादों को भांपते हुए, भारत सरकार ने भी अभियान की अनुमति देने का फ़ैसला किया। सन 1978 में, पहले अभियान का नेतृत्व गुलमर्ग स्थित हाई ऑल्टीट्यूड वारफ़ेयर स्कूल (HAWS) के कमांडेंट कर्नल नरेंद्र कुमार ने किया था, जिन्हें उनके सहयोगी प्यार से ‘बुल’ (हिंदी में बैल) कहते थे। सैन्य अधिकारियों (छात्र अधिकारियों सहित) और प्रशिक्षकों ने सन 1978 और सन 1983 के बीच ग्लेशियर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना शुरू कर दी थी।

ख़तरा और इसकी पुष्टि
द इंडियन एक्सप्रेस में, पत्रकार सुशांत सिंह ने अपने लेख “ऑपरेशन मेघदूत: 34 इयर्स एगो, हाउ इंडिया वोन सियाचिन” (13 अप्रैल, 2018) में लिखा था, कि कर्नल नरेंद्र कुमार ने भारत की तरफ़ वाले ग्लेशियर पर चढ़ना शुरु कर दिया था। उन्होंने सियाचिन क्षेत्र के नक़्शे बनाए, फ़ोटो खींचे और वीडियो बनाए। उन्होंने तत्कालीन सैन्य अभियान निदेशक, लेफ़्टिनेंट जनरल  एम. एल छिब्बर को सूचित किया, कि कैसे पाकिस्तानी सेना उन इलाक़ों में भी पर्वतारोहियों को जाने  की अनुमति दे रही है,  जहां भारतीय सेना ख़ुद अपने सैनिकों को जाने की इजाज़त नहीं देती। यह भी नोट किया गया, कि पाकिस्तानी वायु सेना भी उस क्षेत्र में उड़ाने भर रही है। यानी पाकिस्तान के इरादों के बारे में भारत का संदेह पुख़्ता हो गया।

अपने अभियान के दौरान, कर्नल नरेंद्र कुमार को जर्मन पर्वतारोहियों का एक दल मिला, जिसके नक़्शे में NJ9842 से आगे के क्षेत्रों और इसके आसपास के लगभग 4 हज़ार वर्ग कि.मी. के क्षेत्र को पाकिस्तानी अधिकार क्षेत्र के रूप में दिखाया गया था। इन नक़्शों को देखकर तत्कालीन भारतीय सेना प्रमुख जनरल टी.एन. रैना चौंक गए थे। भारत सरकार ने इस प्रकार साल्टोरो रिज में भारतीय सैनिकों को तैनात करने का फ़ैसला किया, लेकिन इस क्षेत्र में बहुत ज़्यादा ठंड और ख़राब मौसम की वजह से, वहां केवल गर्मियों में ही सैनिकों को तैनात किया  जा सकता था।

हाई ऑल्टीट्यूड वारफेयर स्कूल, गुलमर्ग | विकी कॉमन्स

वहीँ गुलमर्ग में अब बर्फीली वादियों और खराब मौसम में युद्ध करने में भारतीय थल सेना  निपुणता प्राप्त कर रही थी I सन 2014 में बीबीसी के साथ एक साक्षात्कार में, कर्नल नरेंद्र कुमार ने बताया था,  कि सन 1984 की शुरुआत में, लंदन स्थित एक कंपनी से, भारतीय सैनिकों के लिए विशेष उपकरण और आर्कटिक गियर (बर्फीली वादियों में सैनिकों के लिए ख़ास उपकरण) खरीदे गए थे। तब उस कम्पनी के अधिकारियों ने भारतीय अधिकारियों को सूचना दी थी, कि पाकिस्तानी सरकार भी अपने सैनिकों के लिए इसी तरह के उपकरण ख़रीद रही है। नतीजे में, भारतीय सेना ने सियाचिन में अपनी गश्त और तेज़ कर दी।

1984-निर्णायक कार्रवाई

अपनी किताब “इनटू द अनट्रैवेलेड हिमालय: ट्रेवल्स, ट्रेक्स एंड क्लाइम्ब्स” (2005) में, हरीश कपाड़िया लिखते हैं कि सन 1984 की शुरुआत में, जापानी और पाकिस्तानी पर्वतारोहियों का एक संयुक्त दल माउंट रिमो1 (सियाचिन में पूर्व की ओर) के सामने अक्साई चिन पर चढ़ा था, जो भारत और चीन के बीच विवादित क्षेत्र है। इस घटना के बाद भारतीय सेना ने निर्णायक कार्रवाई करने का फ़ैसला किया।

“ऑपरेशन मेघदूत” नाम,  महान संस्कृत नाटककार कालिदास के नाटक “मेघदूत” के नाम पर रखा गया था। इस नाटक में बादल, यक्ष का प्रेम-संदेश लेकर हिमालय जाता है। “ऑपरेशन मेघदूत” नामक सैन्य अभियान को लेफ्टिनेंट-जनरल प्रेम नाथ हून के नेतृत्व में गुप्त रूप से शुरु किया किया गया था। 26 सेक्टर मुख्यालय के तत्कालीन कमांडर ब्रिगेडियर विजय चन्ना ने अपने एक साक्षात्कार में ख़ुलासा किया था, कि उन्हें साल्टोरो रिज पर क़ब्ज़े के लिए 10 से 30 अप्रैल के बीच की कोई तारीख़ चुनने के लिए कहा गया था। उन्होंने 13 अप्रैल की तारीख़ को चुना, क्योंकि उसी दिन बैसाखी का त्यौहार था । त्यौहार का दिन होने की वजह से पाकिस्तान को भारत की ओर से किसी सैन्य कार्रवाई का शक भी नहीं हो सकता था।

इस दौरान भारतीय वायु सेना की तैनाती ज़ोरों पकड़ रही थी, जो अब तक सिर्फ लद्दाख तक ही उड़ानें भर रही थी I यहां एयर वाइस-मार्शल (सेवानिवृत्त) मनमोहन बहादुर सियाचिन में लैंड करने वाले पहले भारतीय वायु सेना पायलट बनें I  इन्ही उड़ान कारवाहियों के कारण भारतीय वायु सेना ने एक नयी हेलीकाप्टर स्क्वाड्रन (दल) का गठन किया,  जिसको आज  114 हेलीकाप्टर यूनिट (सियाचिन पायनियर्स) के नाम से जाना जाता हैI वहीँ दूसरी ओर इन उड़ानों ने भारतीय वायु सेना के लिए सियाचिन के समीप ‘थॉइस’ (ट्रांज़िट हॉल्ट ऑफ़ इंडियन सोल्जर्स एनरूट( टू सियाचिन) नाम से एक एयरबेस बनाने का मार्ग खोल दिया।

ज़ोजीला दर्रा | विकी कॉमन्स

ऑपरेशन मेघदूत का पहला चरण मार्च, सन 1984 में तब शुरू हुआ , जब सैनिकों ने ग्लेशियर के पूर्वी हिस्से में पैदल मार्च किया। हाई ऑल्टीट्यूड वारफेयर स्कूल की टॉस्क फ़ोर्स के साथ कुमाऊं रेजीमेंट और लद्दाख स्काउट्स के सैनिकों ने  बर्फ़ से ढके ज़ोजी ला दर्रे से होकर मार्च किया। लेफ्टिनेंट-कर्नल डी.के.खन्ना की कमान में हुए मार्च के दौरान, पूरे ऑपरेशन को पाकिस्तान से गुप्त रखने के लिए रेडियो सेट का इस्तेमाल नहीं किया गया था।

पहली ज़िम्मेदारी चौथी कुमाऊं रेजीमेंट ने अपने हाथ में ली। ग्लेशियर पर जिस पहली टुक़ड़ी ने कमान संभाली, उसका नेतृत्व मेजर आर.एस. संधू ने किया था। कप्तान संजय कुलकर्णी के नेतृत्व में अगली टुकड़ी ने बिलाफोंड ला पर क़ब्ज़ा कर तिरंगा लहरा दिया था। भारतीय सैन्य इतिहास में इसे एक ऐतिहासिक क्षण माना जाता है। शेष आगे की सैन्य इकाइयों ने कैप्टन पी.वी.यादव की कमान में चार दिनों तक चढ़ाई की और साल्टोरो रिज की बाक़ी चोटियों पर कब्ज़ा कर लिया। 13 अप्रैल तक, लगभग तीन सौ भारतीय सैनिक ग्लेशियर की महत्वपूर्ण चोटियों और दर्रों में फैल चुके थे।

सियाचिन में तैनात तोपखाने की एक टुकड़ी | ADGPI

पश्चिमी साल्टोरो रेंज पर “ऑपरेशन अबाबील” के तहत कब्ज़ा करने में कामयाब रहे पाकिस्तानी सैनिकों को आश्चर्य तब हुआ, जब उन्होंने देखा कि भारतीय सैनिकों ने पहले से ही तीनों प्रमुख पहाड़ी दर्रों- बिलाफ़ोंड ला, सिया ला और ग्योंग ला पर क़ब्ज़ा कर रखा था। 29 मई, सन 1984 तक, 19वीं कुमाऊं रेजिमेंट ने साल्टोरो रिजलाइन  के लगभग 100 किमी इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर लिया था और अब वहां इसके नियंत्रण में ग्योंग-ला, इंदिरा कोल और आसपास के ग्लेशियर थे। ऐसा पहली बार हुआ था, कि जब किसी भारतीय रेजिमेंट ने दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धक्षेत्र में इतने बड़े क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया था।

ऑपरेशन मेघदूत के बाद भारतीय सैनिकों की तैनाती | हाई ऑल्टीट्यूड वारफेयर स्कूल, गुलमर्ग

बाद के नतीजे

तीन साल बाद, सन 1987 में  भारत के क़ब्ज़े वाले क्षेत्रों को दोबारा हासिल करने के लिए, पाकिस्तानी सेना ने 22, 143 फ़ुट की ऊंचाई पर ‘क़ायद चौकी’ बनाई और भारतीय सेना के ख़िलाफ़ सिलसिलेवार हमले किए। हमलों का नेतृत्व शुरू में परवेज़ मुशर्रफ़ ने किया था। तब वह ब्रिगेडियर-जनरल थे। बाद में वह पाकिस्तानी राष्ट्रपति बन गए थे। जवाबी कार्रवाई में, भारतीय सेना ने ‘ऑपरेशन राजीव’ शुरू किया, जहां नायब सूबेदार (फिर आनरेरी कैप्टेन (सेनानिवृत्त)) बाना सिंह के नेतृत्व में  चौकी पर दोबारा क़ब्ज़ा कर लिया गया, और इसका नाम बदलकर ‘बाना पोस्ट’ कर दिया गया। इस बहादुरी के लिए बाना सिंह को भारत के शीर्ष सैन्य सम्मान  परमवीर चक्र से नवाज़ा गया था।

आनरेरी कैप्टेन (सेवानिवृत्त) बाना सिंह, परम वीर चक्र | विकी कॉमन्स

ऑपरेशन राजीव के बाद, भारतीय सेना के महानतम प्रमुखों में से एक, जनरल के.एस.सुंदरजी के कुशल हस्तक्षेप के कारण, दोनों देशों के बीच विवाद कुछ हद तक ठंडा पड़ने लगा था। सियाचिन में पाकिस्तान की पराजय से वहां कि जनता बेहद दुखी थी। बेनज़ीर भुट्टो उस समय विपक्ष की नेता थीं। उन्होंने पाकिस्तानी जनरलों के लिए तश्तरियों में चूड़ियों के साथ सड़कों पर मार्च करते हुए कहा था, “अगर आप सियाचिन में नहीं लड़ सकते, तो ये चूड़ियां पहन लें।”

पूर्व भारतीय सेना प्रमुख जनरल (सेवानिवृत्त) वीपी मलिक ने अपनी पुस्तक “कारगिल: फ्रॉम सरप्राइज़ टू विक्ट्री” (2006) में कहा है, कि पाकिस्तान सियाचिन में पराजय की तुलना बांग्लादेश में हुई अपनी हार से करता है। आज तक पाकिस्तान  यह दावा करता है, कि भारत के उकसाने पर सन 1984 का संघर्ष हुआ था तो यह भी सच है, कि उसी के बाद लगभग ढ़ाई हज़ार वर्ग कि.मी. क्षेत्र पर भारत का कब्ज़ा हो गया था।

 एक विपरीत योजना

अपने लेख ‘सेक्युरिंग दि हाईट्स’ (सितम्बर 2015) में रवि बघेल और मार्कस नुसर में लिखते हैं, कि सन 1999 में  पाकिस्तान ने चरम सर्दियों के मौसम में नियंत्रण रेखा को पार किया था, और ग्लेशियर की प्रमुख चौकियों पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश की। इस तरह वह कश्मीर पर अपना नियंत्रण क़ायम करना चाहते थे। सन 1949 और सन 1972 के समझौतों को नज़रन्दाज़ करते हुए जनरल मुशर्रफ़ के नेतृत्व में पाकिस्तानी सेना, मुजाहिदीन आतंकवादियों के साथ मिल गई और नतीजे में सन1999 का कारगिल युद्ध हुआ।

कुछ दिनों बाद जनरल मुशर्रफ़ और पाकिस्तानी सेना के तत्कालीन उत्तरी क्षेत्र कमान प्रभारी के बीच एक बातचीत सामने आई, जिसमें उन्होंने कारगिल संघर्ष को ‘रिवर्स सियाचिन’ यानी सियाचिन पर दोबारा क़ब्ज़ा करने की बात कही थी। यहां भी  पाकिस्तानी सेना विफल रही और कारगिल युद्ध भारत के लिए एक बड़ी सफलता साबित हुआ।

न ख़त्म होने वाला दर्द

सियाचिन को ले कर हुए संघर्षों में यानी पिछले अड़तीस वर्षों में, दोनों देशों को  बहुत बड़ा जानी और माली नुक़सान उठाना पड़ा है। आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार, दोनों तरफ़ कुल मिलाकर दो हज़ार से ज़्यादा फ़ौजी अपने जानें गवां चुके हैं और पांच हज़ार से ज़्यादा ज़ख़्मी हो चुके हैं। एक बडी तादाद ऐसे सैनिकों की भी है, जो भीषण सर्दी, फेफ़ड़ों की बीमारियों (पल्मोनरी एडिमा) या हिमस्खलन के कारण मारे जा चुके हैं। कुछ मानसिक समस्याओं जैसे याद्दाश्त खोने, गहरे अवसाद और नींद की कमी से पीड़ित हो चुके हैं। कई फ़ौजी भूख कम लगने और अंगच्छेदन जैसी परेशानियों में उलझे हुए हैं।

सियाचिन में दोनों देशों को ख़र्चा भी बहुत करना पड़ता है। यहां कुल मिलाकर एक दिन में, लगभग एक मिलियन डॉलर रक़म कर्च की जाती है। यहां पहुंचते-पहुंचते एक चपाती की क़ीमत 80 गुना बढ़ जाती है। बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में, कर्नल नरेंद्र कुमार ने कहा था, “सियाचिन में अब तक जितना पैसा ख़र्च किया जा चुका है, उससे हम अपने देशों की आधी आबादी को साफ़ पानी और बिजली उपलब्ध करा सकते थे!”

मुख्य चित्र -ADGPI

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