हर साल सावन की पूर्णिमा के दिन पूरे भारत और ख़ासकर उत्तर भारत में पारम्परिक उल्लास के साथ रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाता है। भाई-बहन के अटूट प्रेम के इस त्योहार की अहमियत ऐसी है, कि अगर कोई बहन शत्रु को भी भाई मानकर कच्चे धागों से बने रक्षा के इस ‘सूत्र’ को भेज दे, तो वह मज़हब की दीवारों को भूलकर उसकी सलामती के लिये दौड़ा चला आ जाता है। तभी तो जानी-मानी कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान अपनी ‘राखी’ शीर्षक कविता में लिखती हैं:
“मैंने पढ़ा शत्रुओं को भी
जब-जब राखी भिजवाई
रक्षा करने दौड़ पड़े वे
राखी-बन्द शत्रु भाई।”
ऐसे तो हमारी पौराणिक कथाओं और महाभारत में रक्षाबंधन के कई उल्लेख मिलते हैं, पर चित्तौड़ के राणा सांगा की विधवा रानी कर्मावती और मुग़ल बादशाह हुमायूँ की कहानी को बड़ी शिद्दत के साथ याद किया जाता है। जब गुजरात का सुलतान बहादुर शाह चित्तौड़ पर हमला करने को आमादा था, तो उसका सामना करने में असमर्थ रानी कर्मावती ने हुमायूँ को राखी भेजकर अपनी रक्षा की गुहार लगाई थी।
आज हम आपको इसी तरह की एक दूसरी रोचक घटना से रूबरू कराने जा रहे हैं, जो क़रीब 280 साल पहले बिहार के भागलपुर की सरज़मीं पर घटी थी जब वहाँ की एक मुसलमान वीरांगना ने बंगाल-अभियान पर जा रहे मराठा योद्धा को राखी भिजवाई थी। यह मुसलमान वीरांगना थी, सूब़ा बंगाल (जिसमें बंगाल के साथ बिहार और ओडिशा भी शामिल थे) के नवाब़ सरफ़राज़ खां (1700-1740) के सेनापति ग़ौस खां की विधवा लाल बीबी और मराठा योद्धा का नाम था पेशवा बालाजी राव। बालाजी बाजी राव के पिता बाजीराव प्रथम की मृत्यु के बाद छत्रपति शाहू ने उसे सन 1740 में पेशवा (प्रधानमंत्री) के पद पर नियुक्त किया था।
इस दास्तान की एक दिलचस्प बात यह है, कि मराठा सेनापति बालाजी राव ने लाल बीबी की साहस और उसके आत्मविश्वास का क़ायल होकर ख़ुद एक भाई की तरह उसे स्नेह से भरे तोहफ़े भेजे थे। जबकि चित्तौड़ की रानी कर्मावती ने हुमायूँ को एक भाई का वास्ता देते हुए हमलावर बहादुर शाह से रक्षा की गुहार लगाई थी। आज भी भागलपुर के “ज़ीरो माइल” के पास ग़ौसपुर (ग़ौस खां के नाम पर) में लाल बीबी और उसके शौहर ग़ौस खां और बेटों के मज़ार इस पुरानी दास्तान की याद दिला रहे हैं।
इतिहासकार शाह मंज़र हुसैन अपनी किताब ‘एमीनेंट मुस्लिम्स ऑफ भागलपुर’ में बताते हैं, कि सेनापति ग़ौस खां की विधवा लाल बीबी का निवास भागलपुर के हुसैनाबाद इलाके के बबरगंज-क़ुतुबगंज मुहल्ले में था। बबरगंज-क़ुतुबगंज मुहल्ले का नाम लाल बीबी के जांबाज़ बेटों बबर और क़ुतुब के नाम पर है। लाल बीबी अपने पति ग़ौस खां की तरह एक साहसी, स्वाभिमानी और बुलंद इरादोंवाली औरत थी।
ग़ौस खां की मौत मुर्शिदाबाद (पश्चिम बंगाल) के निकट गिरिया की लड़ाई में सन 1740 को हुई थी, जब बिहार के सूबेदार अलीवर्दी खां ने षडयंत्र कर के नवाब़ सरफ़राज़ खां की हत्या कर दी थी, और उसके बाद, उसने बंगाल के तख्त पर कब्ज़ा कर लिया था। धोखाधड़ी और विश्वासघात के इस दौर में जब नवाब़ सरफ़राज़ के ज़्यादातर दरबारी अलीवर्दी खां के हिमायती बन गये थे, नमकहलाल सेनापति ग़ौस खां ने अंतिम सांस तक अपने आक़ा का साथ दिया था। इस लड़ाई में गौस खां के जाबांज़ बेटे बबर और क़ुतुब भी बहादुरी से मुक़ाबला करते हुए शहीद हुए थे।
ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार पेशवा बालाजी राव ने फ़रवरी, सन 1743 में मराठा हमले के दूसरे दौर में बंगाल जाते हुये बिहार की सीमा में प्रवेश किया था। इसके पहले रघुजी भोंसले ने सन 1742 में एक बड़ी फ़ौज के साथ बंगाल सूबे में ‘चौथ’ वसूली के लिये अपने पेशवा (प्रधानमंत्री) भास्कर राम कोलहाटकर को रवाना किया था जिसे इतिहास में प्रथम मराठा आक्रमण का नाम दिया गया है। भास्कर की हथियारबंद ख़ूंख़ार घुड़सवार सेना, ‘बरगी’ (पारसी शब्द’ ‘बरगीर’ का मराठी अपभ्रंश) के नाम से जानी जाती थी। उस सेना ने बंगाल में अनगिनत हत्या, लूटपाट, औरतों पर ज़ुल्म और फ़िरौती और चौथ वसूली के “कारनामे ” अंज़ाम दिये थे जिसका विवरण उस समय के दस्तावेज़ों में दर्ज है।
मशहूर इतिहासकार जदुनाथ सरकार अपनी किताब ‘बिहार एंड ओरिसा (ओडिशा) ड्यूरिंग द फ़ॉल ऑफ़ मुगल एम्पायर: विथ डिटेल्ड स्टडीज़ ऑफ़ मराठास इन बंगाल एंड ओरिसा’ में बताते हैं, कि मुग़ल सल्तनत के पतन के दौर में, विशेष रूप से औरंगज़ेब की मौत के बाद, जब क्षेत्रीय क्षत्रप सिर उठाने लगे, तो इसका सबसे ज्यादा फ़ायदा मराठा शक्तियों ने उठाया। उन्होंने अपनी एक अलग सत्ता स्थापित कर ली। इसी दौर में रघुजी भोंसले ने अपनी महत्वाकांक्षा और जबरन धन-वसूली की मंशा से सूब़ा बंगाल का रुख़ किया। रघुजी के इस मुहिम के मूल में मराठों के बीच हुए आपसी टकराव में कर्नाटक अभियान में मिले शिकस्त के कारण उसकी आर्थिक तंगहाली भी थी। इस लड़ाई के सैन्य-प्रबंधन में बड़ी राशि के खर्च के कारण रघुजी भोंसले कर्ज़ में डूब गया था। इत्तेफ़ाक़ से, इसी बीच बंगाल सूबे में नवाब़ अलीवर्दी खां के विरुद्ध षडयंत्र रचा जा रहा था, विरोधियों ने सहायता के लिये रघुजी को बुलावा भेजा था।
इतिहासकार जदुनाथ सरकार बताते हैं, कि प्रथम मराठा आक्रमण के दौरान हुई बरबादी के बावजूद बंगाल के नवाब़ अलीवर्दी खां ने इसपर काबू पा लिया और सन 1742 के दिसम्बर महीने तक मराठा सैनिकों को बंगाल की सीमा के बाहर खदेड़ने में सफलता पायी।
पर अगले ही साल सन 1743 में पेशवा भास्कर के बुलावे पर खुद रघुजी भोंसले एक बड़ी सेना के साथ बंगाल की ओर बढ़ चला। मुग़ल बादशाह ने छत्रपति शाहू से बंगाल, बिहार और ओडिशा के लिये एक बड़ी राशि चौथ के रूप में भुगतान करने का वादा किया था, जिसकी वसूली के लिये रघुजी आमादा था। इस हमले को विफल करने की मंशा से बादशाह ने पेशवा बालाजी राव से सहयोग करने की पेशकश की। मराठों के आपसी रंजिश के कारण पेशवा बालाजी राव की रघुजी भोंसले से ख़ासी अदावत थी। नतीजे में बालाजी ने इस मुहिम के लिये हामी भर दी और तकरीबन 50 हज़ार फ़ौजियों की शक्तिशाली सेना के साथ बिहार की ओर कूच करने गया।
सन 1743 के फ़रवरी महीने के शुरूआती दिनों में पेशवा बालाजी राव ने दक्षिण की तरफ़ से बिहार में प्रवेश किया। ज़ाहिर है, कि बालाजी यहाँ रघुजी भोंसले के खिलाफ़ लड़ने के लिये बतौर सहयोगी बनकर आया था। पर उसकी फ़ौज बेलगाम थी और उसने पूर्व मराठा आक्रमणकारियों की तरह यहाँ काफ़ी तबाही मचायी थी। नतीजे में बालाजी के आगमन की सूचना के साथ ही पूरे बिहार प्रांत में अफ़रा-तफ़री मच गयी। जिसे बयां करते हुए ‘सियर-उल-मुताख़रीन’ बताता है, कि “पूरे रास्ते में जिन्होंने उन्हें (बालाजी के सैनिकों को) फ़िरौती की राशि व कीमती तोहफ़े दिये उनके जान-माल को तो बख़्श दिया गया, पर जिन लोगों ने उनकी बात नहीं मानी और अपनी रक्षा के लिये उनका मुक़ाबला किया, वे मार डाले गये और उनके घरों को लूट लिया गया।”
उस समय पटना शहर में शासन के किसी भी ज़िम्मेदार अधिकारी की ग़ौरमौजूदगी के कारण आम लोगों की जान के लाले पड़ गये थे। बादशाह ने बिहार-बंगाल की सुरक्षा की ज़िम्मेवारी अवध के सूबेदार सफ़दर ज़ंग को सौंपी हुई थी। लेकिन वो मौक़े से नदारद था। इससे घबराकर लोग अपने परिवार की रक्षा के लिये अपने घर की महिलाओं और बच्चों को गंगापार भेजने पर मजबूर हो गये थे। यह संयोग ही था कि सूबेदार के एजेंट की मध्यस्थता के कारण बालाजी पटना शहर में प्रवेश करने की बजाय बाहर-ही-बाहर आगे बढ़ गया।
पेशवा बालाजी राव के भागलपुर पहुंचने के बारे में इतिहासकार जदुनाथ सरकार बताते हैं कि बंगाल की ओर तेज़ी से कूच करने की मंशा से बालाजी बनारस से (बिहार के) दाऊदनगर, टिकारी, गया, मानपुर, बिहार (बिहार शरीफ़), मुंगिर (मुंगेर) होता हुआ भागलपुर पहुंचा था। सरकार यह भी बताते हैं, कि बालाजी ने बिहार के अन्य शहरों के मुक़ाबले में मुंगेर के साथ भागलपुर में भारी तबाही मचाई और क्षति पहुंचाई थी।
ग़ौरतलब है, कि ऐसी भयानक स्थिति में जब मराठों के खौफ़ से बिहार का सूबेदार पटना से लापता हो गया था, एक विधवा महिला होने के बावजूद लाल बीबी ने भागलपुर में बालाजी के सैनिकों के खिलाफ़ न सिर्फ़ मोर्चा संभाला, बल्कि पेशवा को अपनी बहादुरी का क़ायल भी कर दिया।
‘सियर-उल-मुताख़रीन’ में वर्णित है, कि पेशवा बालाजी राव के भागलपुर पहुंचने की ख़बर मिलते ही वहाँ के लोग डरके मारे शहर छोड़कर भागने लगे। लेकिन ग़ौस खां की मौत के बाद आर्थिक तंगहाली के कारण उसकी ब़ेवा लाल बीबी के पास इतने साधन भी नहीं थे, कि वह अपने परिवार के अनगिनत लोगों को लेकर गंगा नदी के पार जा सके। दूसरी ओर उसके पास इतनी सैन्य क्षमता भी नहीं थी, कि एक शक्तिशाली दुश्मन का मुक़ाबला कर सके। इस परिस्थिति में मज़बूत इरादोंवाली महिला लाल बीबी ने फ़ैसला किया, कि कायर की तरह पीठ दिखाने से तो बेहतर होगा, कि ख़ून के बचे आख़िरी क़तरे तक अपनी सरज़मीं पर डटे रहकर दुश्मन का मुक़ाबला किया जाए।
फिर क्या था…अपने परिवार के सभी सदस्यों को इकट्ठा कर उनमें ज़ोश भरते हुए लाल बीबी ने ललकारते हुए कहा कि चुपचाप मजबूर होकर अपनी आंखों के सामने अपनी बहू-बेटियों की इज़्ज़त और माल-असवाब़ को लूटते हुए देखने से बेहतर है, कि हम आख़िरी दम तक डटकर मुक़ाबला करें। लाल बीबी की बातें सुनकर परिवार के सभी औरत-मर्द, बच्चे-बड़े ज़ोश से भर उठे और दुश्मन का मुक़ाबला करने के लिये खड़े हो गये।
लाल बीबी ने कमर कसते हुए पहले तो अपने महल के चारों ओर घेराबंदी करवाकर घर के सारे दरवाज़े बंद करवा दिये। फिर महल में पहले से पड़े अपने मरहूम शौहर के बचे-खुचे ज़ंग लगे पुराने हथियारों को इकट्ठा किया, और पूरे हौंसले के साथ मोर्चा संभाल लिया।
शहर में हमलावरों के खौफ़ से सन्नाटा पसरा हुआ था। गश्त लगाते मराठा सैनिकों को एक इलाक़े से जब उनके प्रतिरोध में गोलियां चलने की आवाज़ें सुनाई पडीं, तो वे चौंक गये, कि उनके खौफ़ से जब लोग भाग खड़े हुए हैं तो फिर ये गोलियां कौन दाग़ रहा है ? मराठा सैनिकों ने लाल बीबी के महल को चारों तरफ़ से घेर तो लिया, पर उन्हें आगे बढ़कर बल प्रयोग करने में झिझक हो रही थी। क्योंकि महल की ओर से लगातार हो रही गोलाबारी से उनके कुछ लोग मारे जा चुके की थे।
मराठों की इतनी ताक़तवर फ़ौजी के प्रतिरोध किये जाने की ख़बर जब बालाजी राव तक पहुंची तो हालात का जायज़ा लेने के लिये उसने अपने गुप्तचरों को भेजा। गुप्तचरों ने सूचना दी, कि तंगहाली के कारण लाल बीबी अपने परिवार को बाहर ले जाने में असमर्थ हो गई थी। इसीलिये मशहूर सेनापति ग़ौस खां की विधवा (लाल बीबी) ने यह ठानकर मोर्चा संभाल रखा है, कि भले ही वह अपने महल के मलबों तले दफ़न हो जाय, लेकिन हमलावरों की अधीनता क़ुब़ूल नहीं करेगी। गुप्तचरों ने बालाजी को यह भी सूचना दी कि लाल बीबी अपने मुट्ठी भर लोगों के साथ इतनी मज़बूती से डटी हुई है, कि मराठा सैनिक उसके क़रीब़ जाने से ख़ौफ़ खा रहे हैं।
पेशवा बालाजी राव ख़ुद एक जांबाज़ योद्धा था, और वह दूसरों की बहादुरी की क़द्र करना भी जानता था। उत्तेजित होने की बजाय उसने लाल बीबी के साहस की जमकर प्रशंसा की और उसे न सिर्फ़ दक्कन के नायाब क़ीमती नमूनें तथा ज़रीदार रेशम के तोहफ़े भेजे। साथ ही एक भाई की तरह स्नेह से भरा संदेशा भी भिजवाया। इतना ही नहीं, पेशवा बालाजी राव ने लाल बीबी की सुरक्षा के मद्देनज़र उसके महल में अपने अंगरक्षकों की तैनाती करते हुए उन्हें यह सख़्त हिदायत भी दी, कि उनकी हिफ़ाज़त में कोई कोताही नहीं बरती जाये। पेशवा ने अंगरक्षकों को यह भी हुक्म दिया कि बालाजी के भागलपुर की सीमा से बाहर निकलने के बाद ही वे लाल बीबी के आशियाने को छोड़ेंगे।
कहते हैं, पेशवा बालाजी राव के इस प्यार भरे बरताव से अभिभूत होकर लाल बीबी ने भी एक बहन का फ़र्ज़ निभाया और अपने दुपट्टे का एक पल्लू फाड़कर, राखी के रूप में उसे बालाजी राव को भिजवा दिया जो भाई-बहन के जज़्बाती रिश्ते एक अनोखी मिसाल बन गई।
इस घटना का जिक्र इतिहासकार राधाकृष्ण चौधरी ने भी अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ भागलपुर’ में किया है जिसमें वे कहते हैं, कि पेशवा बालाजी राव जब भागलपुर पहुंचा, तो नवाब़ सरफ़राज़ खां के सेनापति ग़ौस खां की जांबाज़ विधवा ने अपनी हिफाज़त का संकल्प लिया था जिसकी साहस से प्रभावित होकर बाद में बालाजी ने उसे सुरक्षा प्रदान की थी।
कभी पेशवा बालाजी राव जैसे मराठा योद्धा को अपनी जांबाज़ी से प्रभावित करनेवाली लाल बीबी आज भागलपुर के एक कोने में अपने शौहर सेनापति ग़ौस खां, बेटों और सहेली के साथ जर्जर दीवारों के बीच लेटी हुई है। समय रहते यदि इस स्मारक को मौसम की मार और अतिक्रमणकारियों की लालची नज़रों से नहीं बचाया गया, तो हो सकता है, कि बंगाल के नवाब़ के सेनापति ग़ौस खां और उनकी बहादुर विधवा लाल बीबी का ये स्थल अपना वज़ूद ना खो दे।
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