ज़ंस्कार घाटी के ऊबड़-खाबड़ और ठंडे पहाड़ों के बीच मौजूद है करगिल…जिसका ज़िक्र आते ही सन 1999 में भारत पाकिस्तान के बीच यहॉ लड़ी गयी जंग की याद आ जाती है। लेकिन कम ही लोग जानते हैं, कि यह तिब्बती और फ़ारसी संस्कृति के मिलन का केंद्र भी रहा है।
कारगिल के समृद्ध गौरवशाली अतीत को संजोकर रखने वाले जो स्थान हैं, उनमें एक फुग्ताल मठ है। इस मठ की स्थापना के बाद लगभग ग्यारह सदियों तक बाहरी दुनिया को इसकी कोई ख़बर नहीं थी। केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख़ में करगिल ज़िले की ज़ंस्कार तहसील में लुंगनाक घाटी में स्थित यह एक प्राकृतिक गुफा के आसपास बनाया गया था। वहां आज भी खच्चरों, गधों या टट्टूओं के ज़रिये रसद पहुंचाई जाती है। तिब्बती बौद्ध धर्म के गेलुग संप्रदाय के अंतर्गत आने वाला ये मठ उन भिक्षुओं के लिए आदर्श स्थान है, जो ध्यान लगाने के लिए शांति और एकांत की तलाश में रहते हैं।
ज़ंस्कार, देश में खोजे गये दुलर्भ स्थानों में से एक है। ज़ंस्कार लेह से उत्तर-पश्चिम की ओर 105 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, जो अप्रैल से सितंबर के बीच सैलानियों के लिए खोला जाता है, और बाक़ी महीने भारी बर्फ़बारी के कारण बंद रहता है।
पुराने तिब्बती इतिहास के अनुसार 7वीं शताब्दी में जंस्कार में तिब्बतियों का प्रभाव था। उस समय वहां बॉन धर्म का बोलबाला था। लोकिन जब 33वें तिब्बती शासक सोंगत्सेन गम्पो (604-650) ने तिब्बत में बौद्ध धर्म की शुरुआत की तो ये ज़ंस्कार में भी फैल गया। बौद्ध धर्म जैसे जैसे लद्दाख़ में फ़ैलने लगा, ज़ंस्कार के भीतर या पश्चिम की ओर आवाजाही करने वाले बौद्ध भिक्षुओं ने 12वीं शताब्दी में लकड़ियों की टहनियों और मिट्टी की नींव डालकर फुग्ताल में एक छोटा सा मठ बनाया।इसी बीच 10वीं शताब्दी में तब्बती साम्राज्य का पतन होने लगा,गुगे और मार्युल साम्राज्य उभर कर सामने गये। ज़ंस्कार जैसे इलाक़ों के कुछ हिस्सों पर भी उनका क़ब्ज़ा हो गया। हालांकि इस बदलाव से तिब्बती बौद्ध धर्म के फैलाव पर कोई असर नहीं पड़ा, और यहां आध्यात्म के नये विचारों का आदान प्रदान चलता रहा, जिसके नतीजे रेशम मार्ग बनने के बाद सामने आये।
और अधिक बौद्ध भिक्षुओं के यहां आने और उनके यहां अस्थायी रूप से ठहरने की वजह से, 15वीं शताब्दी तक जंगसेम शेरप जांग्पो (1395-1457) के यहां आने के पहले तक फुग्ताल लगभग तीन शताब्दियों तक बौद्ध धर्म के विभिन्न मत को मानने वाले भिक्षुओं का एक कच्चा-पक्का मठ बन गया। यह वह समय था, जब नामग्याल राजवंश का (15वीं शताब्दी-19वीं शताब्दी) का लद्दाख में उदय होने लगा था, और मध्य तिब्बत क्षेत्र में तिब्बती बौद्ध धर्म का गेलुग संप्रदाय फ़ैलना शुरु हो गया था। गुलाग संप्रदाय की शिक्षा के प्रचार के लिए जंगसेम अपने चार अन्य शिष्यों के साथ लद्दाख पहुंचे थे।
ज़ंस्कार क्षेत्र की यात्रा के दौरान उनकी नज़र फुग्ताल के मठ पर पड़ी और उन्होंने इसको दोबारा बेहतर बनाने का फ़ैसला किया। उनके मार्गदर्शन में गुफा के चारों तरफ़ मठ बनाया गया, जिसमें एक मुख्य मंदिर, प्रार्थना कक्ष, एक पुस्तकालय, कक्ष, शिक्षण सुविधाएं और एक रसोईघर शामिल थे। मठ के निर्माण के दौरान फुग्ताल में एक पारंपरिक तिब्बती दवाख़ाना (अमची) होता था, जहां मठ में पारंपरिक तिब्बती दवाख़ाने में तैयार की गई प्राकृतिक दवाएं उपलब्ध होती थीं। यहां तक कि आधुनिक विज्ञान ने भी यहां चिकित्सा क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दर्ज की है। आज भी पारंपरिक तिब्बती दवाख़ाने आमची मठ में और उसके आसपास रहने वाले लोगों का इलाज करते हैं।
17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हालांकि मुग़लों ने तिब्बती घुसपैठियों पर क़ाबू में रखने के लिए नामग्यालों से कुछ धार्मिक शर्तों के साथ गठजोड़ कर लिया था, लेकिन फुग्ताल सहित मठों को कोई नुक़सान नहीं पहुंचाया, और उन्हें गेलुग संप्रदाय की शिक्षाओं के अनुसार काम करने दिया गया। लेकिन 18वीं शताब्दी में हालात तब बदल गये जब कई स्वतंत्र प्रांत उभरने लगे और अपने क्षेत्र के विस्तार के लिये कुल्लू, लाहौल और किन्नौर प्रांतों ने ज़ंस्कार पर धावा बोल दिया जिसकी वजह से नामग्याल कमज़ोर हो गये। उन्होंने फुग्ताल सहित अन्य क्षेत्रों में मठों में तोड़फोड़ भी की। इसके बाद मठों की मरम्मत का काम शुरु हुआ।
जैसे-जैसे ब्रिटिश, भारतीय उपमहाद्वीप में अपने शासन का विस्तार कर रहे थे, कई इतिहासकार, विद्वान और शोधकर्ता इस क्षेत्र के बारे में अध्ययन करने यहां आए। हंगरी के भाषाशास्त्री अलेक्जेंडर सिसोमा डी कोरोस (1790-1842) मध्य एशिया में हंगेरी के लोगों की जड़ों को खोजने के अभियान में लिए निकले हुए थे। अपने अभियान के तहत वह सन 1823 में कश्मीर घाटी से होते हुये फुग्ताल पहुंचे, और लामाओं की मदद से तिब्बती भाषा का अध्ययन किया। बाद में उन्होंने उन्हीं लोगों की मदद से पहला तिब्बती-अंग्रेज़ी शब्दकोश (1834) तैयार किया। उनकी याद में यहां उनके नाम की, पत्थर की एक पट्टी भी लगाई गई है।
सन 1834 तक अपने क्षेत्रों का विस्तार करने और किश्तवाड़ में पड़े सूखी की वजह से पैदा हुई वित्तीय समस्याओं को हल करने के लिये सिख जनरल ज़ोरावर सिंह कहलुरिया (1784-1841) ने लद्दाख़ पर हमला कर दिया, और नतीजतन नामग्याल वंश, सिख साम्राज्य के अधीन हो गया। सिखों और चीन के चिंग साम्राज्य के बीच चुशूल की संधि (1842) के बाद लद्दाख़ और तिब्बत के बीच पुरानी सीमाओं और दायित्वों की दोबारा तसदीक़ कर दी गई तथा लद्दाख को प्रशासनिक रूप से कश्मीर से मिला दिया गया। बाद में एंग्लों-सिख युद्ध और अमृतसर संधि के बाद महाराजा गुलाब सिंह (1792-1857) के अधीन सन 1846 में जम्मू-कश्मीर एक रियासत बन गई और लद्दाख़ का इसमें विलय हो गया।
सन 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तब शुरु में लद्दाख़ पाकिस्तान के हिस्से में था लेकिन कश्मीर युद्ध (1947-48) के बाद लद्दाख़ और ज़ंस्कार का भारतीय संघ में विलय हो गया। सन 1970 के दशक में सीमा सड़क संगठन ने लद्दाख और कश्मीर घाटी के बीच सड़क बनाई, तब लोगों का ध्यान इस मठ की तरफ़ गया। सड़क बनने के बाद यहां सैलानी और शोधकर्ता आने लगे थे। दिलचस्प बात यह है कि इस क्षेत्र में सन 1965, सन 1971 और सन 1999 में भारत और पाकिस्तान के बीच हुये युद्धों के बावजूद फुग्ताल को कोई नुक़सान नहीं पहुंचा !
सन 1979 में जब करगिल को जम्मू-कश्मीर का एक अलग ज़िला बनाया गया, तो ज़ंस्कार एक तहसील बन गया जिसका मुख्यालय पदुम में था। बदलते समय के साथ तालमेल बैठाने और संतुलन बनाने के लिए सन 1993 में यहां एक स्कूल खोला गया। पहली से आठवीं कक्षा वाले इस स्कूल का पाठ्यक्रम पारंपरिक और आधुनिक शिक्षा का मिश्रण था। यहां छात्रों को विज्ञान, हिंदी और अंग्रेज़ी के अलावा तपस्वी जीवन, प्रार्थना, रीति रिवाज, त्यौहारों और भजन आदि की भी शिक्षा दी जाती है। सन 2016 में मठ में सोलर बिजली लगाई गई।
फुग्ताल मठ में अब 70 भिक्षु रहते हैं। 15वीं शताब्दी के बाद से यहां कई त्योहार मनाने का सिलसिला जारी है, जो फ़रवरी के महीने से शुरू होते हैं। जिनकी वजह से पुराने आकर्षण अभी भी बरक़रार है। त्योहारों में पारंपरिक रीति-रिवाजों की योजना और उनके बेहतरीन आयोजन को बहुत महत्व दिया जाता है।
कारगिल से पदुम तक 250 किलोमीटर की यात्रा के बाद पदुम (ज़ंस्कार तहसील का मुख्यालय) में एक दिन रुककर तीन दिन की ट्रेकिंग या कुछ घंटों की ड्राइव करके फुग्ताल मठ पहुंचा जा सकता है। आपको यहां के मौसम की ठीक से आदत डालनी होगी। फुग्ताल मठ तक जाने के लिए यही तीन रास्ते हैं।
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